गुरुवार, 3 सितंबर 2015

प्रो. मालेशप्पा मादिवलप्पा कलबुर्गी की याद बरास्ते ‘शरण साहित्य’- प्रणय कृष्ण

जो जड़ है वह नष्ट हो जाता है, जो गतिमान है, वह नष्ट नहीं होता’

MM-Kalburgi
                             
अपने समय के समाज के बारे में बसवेश्वर अपनी बहन नागलम्बिका से कहते हैं,-“….बहन, ऐसा प्रतीत होता है कि बुरे लोगों के समाज में जो निकृष्टतम होते हैं , वे ही नेता होते हैं. इन्हें लगता है कि वे धर्म के नाम पर कुछ भी कर सकते हैं , यदि उनके पास थोड़ा पैसा हो और कुछ दुष्ट अनुयायी हों. लेकिन वे दिन दूर नहीं जब ये पैसा , ये पुजारी और उनके अनुयायी इस मठ की मृत्यु का कारण बनेंगे. ” (श्री कलबुर्गी के नाटक ‘केट्टिटू कल्याण’ (कल्याण का पतन) के बसवराज नायकर कृत अंग्रेजी अनुवाद ‘दि फॉल ऑफ़ कल्याण’, पृष्ठ २९ से उद्धृत)
जान पड़ता है कि ३० अगस्त के दिन ‘धर्म के नाम पर’ कुछ भी कर गुजरने का हौसला रखने वालों ने पैसे और दुष्ट अनुयायियों के बल पर भाड़े के हत्यारों से प्रो. कलबुर्गी की ह्त्या करा दी. ‘मूर्ति पूजा की निंदा के चलते ही संभवतः प्रो.कलबुर्गी की ह्त्या हुई’- ऐसा समाचार पाकर ३० अगस्त की रात एक साथी ह्त्या से आक्रोशित होकर मुझे फोन पर कह रहे थे, “आज दयानंद होते या बिल्ले-सुर बकरिहा लिखनेवाले निराला, तो उन्हें भी ये लोग मार डालते.”
श्री कलबुर्गी का जीवन-दर्शन
‘जो जड़ है वह नष्ट हो जाता है, जो गतिमान है, वह नष्ट नहीं होता’ , यह पंक्ति प्रो. कलबुर्गी के लिखे बसवन्ना के जीवन पर आधारित नाटक ‘केट्टितू कल्याण’ (कल्याण का पतन) में बार-बार टेक की तरह दोहराई जाती है. इन पंक्तियों में श्री कलबुर्गी का जीवन-दर्शन गूंजता है, जो सर्वाधिक १२ वीं सदी के क्रांतिकारी संत बसवेश्वर से प्रभावित रहा. इस नाटक में न केवल बसवेश्वर का क्रांतिकारी जीवन और दर्शन , बल्कि श्री कलबुर्गी द्वारा उसकी समकालीन प्रासंगिकता की अद्यतन व्याख्या भी सुरक्षित है. जड़ता और यथास्थितिवाद की ताकतों ने भले ही उनकी ह्त्या कर दी, लेकिन उनके जीवंत और गतिमान विचार नष्ट नहीं किए जा सकते. बसवन्ना और उनके अद्भुत व्याख्याकार कलबुर्गी के जीवन और दर्शन की उल्लेखनीय समानताओं को ध्यान में रखते हुए ही शायद उनकी मृत्यु पर बंगलुरु के टाउन हॉल पर आयोजित विरोध-प्रदर्शन में एक प्रदर्शनकारी ने तख्ती पर लिख रखा था, ‘कल बसवन्ना थे, आज कलबुर्गी.” बसवन्ना भी अपने विचारों के लिए ही जिए और मरे.
‘कल्याण का पतन’ नाटक तीन हिस्सों में बसव के जीवन और दर्शन के तीन सोपानों को प्रस्तुत करता है. कर्मकांड से अच्छे धर्म की ओर यात्रा बागेवाड़ी में, भौतिक प्रकृति से आध्यात्म की ओर कूडल संगम में और आध्यात्मिक संस्कृति से सामाजिक संस्कृति की ओर यात्रा कल्याण में पूरी हुई. बसव के जीवन-दर्शन की प्रो. कलबुर्गी द्वारा नाट्य-रूप में प्रस्तुत यह गतिमानता एक तरह से समूचे लिंगायत आदोलन की अंतिम परिणति के रूप में सामाजिक क्रान्ति के उद्देश्य को प्रस्थापित करती है.
सच के लिए सत्ता से टकराने वाले इतिहासकार
कलबुर्गी कन्नड़ साहित्य की दुनिया के उन महत्वपूर्ण लोगों में से थे जिन्होंने कर्नाटक क्षेत्र के इतिहास को प्रशिक्षित इतिहासकारों से भी अधिक दक्षता के साथ वैज्ञानिक ढंग से उद्घाटित किया. श्री कलबुर्गी, रहमत तारिकेरे, डी.आर.नागराज, एम. चिदानंदमूर्ति, एन. पी. शंकरनारायण आदि कन्नड़ साहित्यकारों का वैज्ञानिक इतिहास-लेखन में जैसा योगदान है, वैसा किसी आधुनिक भारतीय भाषा के साहित्य में नहीं मिलता. इसी साल जून में श्री कलबुर्गी ने एक भाषण में अपनी इतिहास-दृष्टि का मानो सार प्रस्तुत करते हुए कहा, “ ऐतिहासिक तथ्यों पर दो तरह के शोध-कार्य होते हैं . एक वह होता है जो सत्य की खोज पर समाप्त हो जाता है , दूसरा उसके आगे जाकर वर्तमान का पथ-प्रदर्शक बनता है.. जहाँ पहले किस्म का शोध-कार्य महज अकादमिक होता है , वहीं दूसरे वाले में वर्तमान का मार्ग-दर्शन होता है .वक्त का तकाज़ा है कि इन दूसरे किस्म के शोध-कार्यों पर जोर दिया जाए जो वर्तमान के सवालों से इतिहास से मिलने वाली सीख की रोशनी में रू-ब-रू होते हैं.” वर्तमान की चुनौतियों से इतिहास के सम्बन्ध पर जोर देने के चलते ही वे समय समय पर धर्मसत्ता और राजसत्ता के प्रतिष्ठानों से टकराते रहे. अपने तार्किक और वस्तुवादी दृष्टिकोण के कारण खुद लिंगायत धर्म-प्रतिष्ठान से भी उनका टकराव होता रहा. बसवन्ना (जिनके जीवन और दर्शन के वे सबसे श्रेष्ठ व्याख्याता थे) के जीवन और रिश्तों के बारे में प्रचारित मिथकों की छानबीन और व्याख्या के ज़रिए उनके पीछे के ऐतिहासिक यथार्थ के उदघाटन के प्रयास में १९८९ में उन्हें लिंगायत समुदाय के रूढ़िवादियों का कोप झेलना पडा. उस समय भी उन्हें मार डालने की धमकियां दी गयी. मार्ग शृंखला की पुस्तकें जिनमें कन्नड़ साहित्य, इतिहास और संस्कृति से सम्बंधित उनके शोधपरक निबंध संकलित हैं, उसकी पहली पुस्तक ‘मार्ग १’ से उन्हें दो अध्याय लिंगायत मठाधीशों के दबाव में वापस लेने पड़े . इस घटना पर व्यथित होकर उन्होंने कहा था की ” मैंने अपने परिवार की सुरक्षा के लिए यह किया, लेकिन इसी दिन मेरी बौद्धिक मृत्यु हो गयी.” क्षोभ में उन्होंने जो भी उस समय कहा ,लेकिन उनकी निर्भीक बौद्धिक यात्रा जारी रही. इसी शृंखला की पुस्तक ‘मार्ग ४‘ पर उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड २००६ में मिला. १९८९ में उनको मिली धमकियों के विरोध में भी अखिल भारतीय प्रतिवाद के स्वर उठे थे. इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली के २० मई, १९८९ के अंक में सम्पादक के नाम पत्र में इस घटना पर प्रतिवाद जताते हुए सर्वश्री बिश्वरूप दास, सुधीर चन्द्र, लैसी लोबो, घनश्याम शाह, अर्जुन पटेल, एस.एस. पुणलेकर, सोनल श्रॉफ, परमजीत सिंह, अचिन विनायक, किरण देसाई, सत्यकाम जोशी, के.एस. रमण आदि बौद्धिकों ने लिखा था, “राजनीतिक निरंकुशता अकादमिक स्वतंत्रता के लिए खतरा है. धार्मिक मतान्धता की तानाशाही और रूढ़िवाद के साथ मिलकर इसने हमारे ‘आधुनिक’ और ‘सभ्य’ युग में बौद्धिक कर्म को वैसा बना दिया है जैसा वह सुकरात और गैलीलियो के समय हो उठा था. फिर, श्री कलबुर्गी की प्रताड़ना की इस क्रूर विडम्बना से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि उनके खिलाफ अभियान चलानेवाले महान क्रान्तिकारी संत बसव के अनुयायी हैं. क्या वे भूल गए हैं कि ये विचार की ही ताकत थी जिस के बल पर बसव ने अपने समय के रूढ़िवाद के आडम्बरों और गड़बड़ियों को बेनकाब किया था ? क्या वे खुद उसी रूढ़िवाद की स्थापना में लग गए हैं, जिसके खिलाफ बसव ने अपने समय में लड़ाई की थी और सुधारने की कोशिश की थी? अन्यथा उन्हें कलबुर्गी के साथ ईमानदार तार्किकता की भावना के साथ बहस करनी चाहिए थी, न कि उन्हें संस्थाबद्ध धर्म की ताकत से खामोश करने की कोशिश.” १९८९ से २०१५ का भारत बहुत अलग है. अब धर्म की ताकत से खामोश करने से आगे जाकर बन्दूक के बल पर बौद्धिकों और तर्कनिष्ठ लोगों को खामोश करने का अभियान संचालित है. श्री दाभोलकर, कामरेड पानसारे और कलबुर्गी महोदय को पिछले तीन सालों में इसी तरह से खामोश किया गया. वह इतिहास कैसा होगा जिसमें तथ्य का ही गला घोंट दिया जाए? वह विज्ञान कैसा होगा जिससे तर्क गायब हो? वह अकादमी कैसी होगी जिसमें विचारों की सरे-राह ह्त्या हो? यह सवाल आज के भारत में जिस तरह विकराल मुंह बाए खड़े हैं, वैसे कभी न थे.
सन २०१२ में कर्नाटक सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने प्रो. कलबुर्गी को उस समिति का प्रमुख बनाया जिसे आदिलशाही वंश के अधीन रचे गए समस्त साहित्य को कन्नड़ में लाने का कार्यभार सौंपा गया. उर्दू, फारसी और अरबी में उपलब्ध इस प्रभूत साहित्य का संरक्षण इसलिए भी आवश्यक है कि बीजापुर के इतिहास की बेशुमार जानकारियों इनमें मौजूद हैं. इनका साहित्यिक मूल्य भी कुछ कम नहीं. भाषाविद, संस्कृति के अध्येता, लोक साहित्य के विशेषग्य और शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि के पाठ में महारत प्राप्त अग्रणी इतिहासकार होने के कारण ही उन्हें यह जिम्मा दिया गया. श्री कलबुर्गी आदिलशाही वंश को दक्कन के पठार में सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अलमबरदार मानते थे और इब्राहीम आदिलशाह को उन्होंने ‘ दक्षिण भारत का अकबर ‘ बताया था. उन्होंने मुहम्मद कासिम फ़रिश्ता की ‘गुलैन- ए- इबाहिमी’ और काजी नूरुल्ला की ‘तारीख-ए-आदिलशाही’ सहित २० पुस्तकों का अनुवाद पहले चरण में पूरा करने का जिम्मा लिया था और जीवन के अंतिम दिनों में इस काम में लगे हुए थे. प्रो. कलबुर्गी के अनुवादों का सम्पादन कर रही लेखिका एम. एस. आशा का कहना है कि उनकी अगली रचना १२ वीं सदी से १६ वीं सदी के बीच कन्नड़ में स्त्री लेखन के विलुप्त होने के कारणों की खोज पर केन्द्रित थी, जिस दौर में लिंगायतों के बीच उभरे पुरोहित वर्ग ने वचन परम्परा के साहित्य का दमन किया था.
शरणों की विवेकवादी परम्परा के वाहक
४५० से भी ज्यादा संतों की वाणियों को अथक शोध के माध्यम से १५ खण्डों में ‘समग्र वचन सम्पुट’ में संकलित किया गया है. प्रो. कलबुर्गी के सम्पादन से इन खण्डों की शुरुआत हुई. जिस ‘वचन साहित्य’ के महान अध्येता प्रो. कलबुर्गी थे, उसमें क्या कहा गया है? क्या इन संतों ( शरण और शरणियों) ने वेदों पर व्यंग्य नहीं किया, कर्मकांडों का उपहास नहीं किया? क्या देवी- देवताओं की उपासना का तिरस्कार नहीं किया? उनकी ह्त्या के बाद भी जिस तरह विश्व हिन्दू परिषद् के प्रतिनिधि टी.वी. चैनल पर श्री कलबुर्गी पर देवी –देवताओं के तिरस्कार का आरोप लगा रहे थे और प्रकारांतर से लोगों के विक्षोभ के बहाने उनकी हत्या के औचित्य का संकेत कर रहे थे, क्या वे बसवन्ना, अक्क महादेवी, अल्लम प्रभू, चेन्न बसवन्ना, दोहर काकय्या, चेन्नैया, सिद्धरमा, गणचार और सैकड़ों शरणों और शरणियों से अतीत में जाकर बदला लेंगे? नीचे हम प्रतिष्ठित ग्रंथों से शरणों के वचन साहित्य के कुछ उद्धरण दे रहे हैं. इन्हें पढ़कर कोई बताए कि कर्मकांड, मूर्तिपूजा और पाखंड के खिलाफ इससे अधिक क्या कुछ कहा जा सकता है? क्या श्री कलबुर्गी इससे इतर या इससे बढ़ कर कुछ कहते हैं?
१. बसवेश्वर कहते हैं, ” गोबर के गणेश को चम्पा के फूल से पूजें तो भी वो अपनी बदबू नहीं छोड़ता” ( र. श्री. मुगलि, कन्नड़ साहित्य का इतिहास, नयी दिल्ली, १८७१, पृष्ठ ९३, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश भाग -२, ले. रामविलास शर्मा पृष्ठ ११९ से उद्धृत, किताबघर, नयी दिली, २००९)
२. बसवेश्वर के काफी बाद संभवतः १५ वीं सदी के कवि वेमना का कहना है , “क्या बार बार स्नान करने से मुक्ति प्राप्त हो जाती है? तो उस हालत में सब मछलियाँ मुक्तिप्राप्त हैं. अगर माथे पर राख मलने से मुक्ति मिलती हो तो गधा राख में ही लोटता है. अगर शाकाहार से ही शारीरिक पूर्णता मिलती हो तो बकरी तुमको मात देगी. यदि शूद्र का लड़का शूद्र ही हो तो ब्राह्मणोत्तम के रूप में वशिष्ठ की कैसे पूजा कर सकते हो? क्या वह शूद्र स्त्री उर्वशी के पुत्र नहीं थे?.. अगर अछूत स्त्री के पति को भी अछूत समझा जाए, तो वशिष्ठ के बारे में तुम कैसे गर्व कर सकते हो?क्या उनकी पत्नी अरुंधती अछूत नहीं थी? जब तुम कोई वैदिक कर्मकांड करते हो, या तीर्थस्थान पर जाते हो, तो मुंडन करने के लिए नाई सर पर पानी छिड़कता है. कोई नहीं कह सकता कि पुरोहित के पानी ने चमत्कार किया या नहीं पर नाई के पानी ने काम किया, यह दिखने के लिए मुड़ा सर गवाही दे रहा है .” ( र. श्री. मुगलि, कन्नड़ साहित्य का इतिहास, नयी दिल्ली, १८७१, पृष्ठ ५२ , भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश भाग -२, ले. रामविलास शर्मा पृष्ठ १२२ से उद्धृत, किताबघर, नयी दिली, २००९) -
३. शिवशरणी काळव्वे अपने एक पद में पूछती हैं-
“ मुर्गी-बकरी छोटी मछली
खाने वालों को कुलश्रेष्ठ कहते हो,
शिवजी को पंचामृत दूध देनेवाली
गाय खानेवालों को हीन जाति कहते हो,
कैसे वे हीन जाति, कैसे ये कुलश्रेष्ठ हैं?”
(‘बारहवीं सदी की कन्नड़ कवयित्रियाँ और स्त्री- विमर्श’- ले. काशीनाथ अम्बलगे, पृष्ठ ७३)
इन्हीं वचनकारों और शरणियों की विवेकवादी परंपरा के वाहक थे श्री कलबुर्गी. आश्चर्य है कि वीरशैव आन्दोलन से काफी पहले से लिखे जा रहे सूत्रों और स्मृतियों में शूद्रों, अन्त्यजों, स्त्रियों के बारे में जो कुछ कहा गया, अंतरजातीय विवाह करनेवालों को भीषण प्रताड़ना के जैसे निर्देश वहां दिए गए हैं, उन्हें लेकर कोई धर्मध्वजावाहक आज भी आहत नहीं होता, जबकि शरण परम्परा के वचनों के व्याख्याता को सहना इन लोगों के लिए आज भी मुश्किल हो रहा है.
लिंगायत मत ने एक हजार साल से भी पहले वैदिक प्राधिकार, जाति-भेद, चार आश्रमों और चार वर्णों की व्यवस्था, बहुदेववाद, पुरोहितवाद, पशु-बलि, आत्म-बलि, सती-प्रथा, कर्मों के बंधन, ईश्वर और आत्मा के द्वैत, मंदिर- पूजा, छूत- अछूत, स्वर्ग और नरक की धारणाओं का खंडन किया. इस आन्दोलन की ऊर्जा और प्रेरणा आज भी ‘वचन साहित्य’ या ‘शरण साहित्य’ में सुरक्षित है, जिसे श्री कलबुर्गी किसी भी धर्म-ग्रन्थ या पूजा-पद्धति के मुकाबले आज भी सामाजिक प्रगति के लिए प्रासंगिक पाते हैं. गद्य-पद्यमय शरण साहित्य के रचयिताओं ने संगठित धर्मों को ‘सत्ता-प्रतिष्ठान’ माना. उनकी निगाह में ये जड़ संस्थाएं थीं जो मनुष्य को सुरक्षा और सुनिश्चित भविष्य का वायदा करती थी, जबकि शरणों के लिए धर्म गतिमान, स्वतःस्फूर्त और मुक्ति के सौदों से मुक्त था. अल्लम प्रभू के अनुसार, “गरीबों को भोजन दो, सत्य बोलो, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ, नगर के लिए पानी की टंकियां बनवाओ. तुम मृत्यु के बाद स्वर्ग चले जाओगे, लेकिन हमारे परमात्मा के सत्य के नज़दीक भी नहीं पहुँच पाओगे. जो मनुष्य हमारे इष्ट को जानता है, उसे बदले में कुछ मिलता नहीं. ”
दुर्भाग्य से समय बीतने के साथ जैसा कि बहुत से क्रांतिकारी धार्मिक आन्दोलनों के साथ इतिहास में होता रहा है, वीरशैव मत में अनेक ऐसी चीज़ों का दाखिला होता गया जिनका बसवेश्वर ने निषेध किया था. मंदिर-पूजा बहाल हुई जिसके बारे में बसवेश्वर ने कहा था –
‘धनवान शिवमन्दिर बनवाते हैं,
मैं गरीब मैं क्या कर सकता हूं।
मेरे पैर ही मिनार, शरीर ही मन्दिर,
सिर ही सोने का मुकुट है,
कूडल संगमदेव ! जड़ नाशमय है चेतन अविनाश है।’
( ‘बसवेश्वर’- ले. काशीनाथ अम्बलगे, पृष्ठ १६)
कर्मकांड वापस आए, गुरु को शिष्य द्वारा भेंट देने की परम्परा वापस आई, सामाजिक स्तर-भेद पैदा हुए और जंगम वरीयताक्रम के अंतर्गत गुरु-शिष्य सम्बन्ध का नितांत व्यक्तिगत होना संस्थाबद्ध हुआ. जिस लिंगायत आन्दोलन के तहत बसवन्ना ने ब्राह्मण युवती और मोची युवक की शादी कराई क्योंकि दोनों ही लिंगायत थे, वह आन्दोलन न रह कर बाद में स्वयं एक जाति बन गया. लिंगायत आन्दोलन और विचार का धर्म के रूप में संस्थाबद्ध होना तो मध्यकाल से ही चली आती परिघटना है, लेकिन वर्तमान समय में भारतीय लोकतंत्र की प्रतियोगी राजनीति ने जिस तरह जातियों को वोट में तब्दील किया उसके चलते विचारों पर आधारित सामाजिक समूहों ने भी वोटों का संख्याबल एकत्रित करने के लिए जाति के रूप में नयी आत्म-परिभाषा रची. लिंगायत आन्दोलन का जातिकरण इसी रास्ते हुआ जो आधुनिक परिघटना ही है. श्री कलबुर्गी ने गैर-बराबरी और शोषण पर आधारित राजसत्ता और धर्मसत्ता के द्वारा वीरशैव मत के आत्मसातीकरण का विरोध करना जारी रखा. उनके अनुसार वीरशैव मत में वैयक्तिक साधना या मुक्ति अथवा वैयक्तिक उन्नति के लिए जगह नहीं थी, बल्कि सामाजिक मुक्ति ही उसका मुख्य ध्येय है. अपनी इस धारणा के चलते वीरशैव मत के जंगम सम्प्रदाय जहां वैयक्तिक मुक्ति पर बल है, उसके पञ्च पीठों से भी उनका विरोध का रिश्ता रहा. ‘कल्याण का पतन’ नाटक में बसवेश्वर का संवाद है, “ सार्वभौम अनुभव और कुछ नहीं, बल्कि अध्यात्मिक अनुभव का सामाजीकरण है. हर व्यक्ति को सार्वभौम अनुभव होना चाहिए लेकिन यह जनता के लिए तब तक संभव नहीं जब तक वह पुरानी व्यवस्था को नष्ट करके नयी व्यवस्था कायम नहीं करती. (‘दि फॉल ऑफ़ कल्याण’, पृष्ठ ३३ ) सामाजिक मुक्ति की धारणा पर बल देने के लिए श्री कलबुर्गी १२ वीं सदी के शरण आन्दोलन को भक्ति आन्दोलन से भी भिन्न बताते हैं. इसी साल जून महीने में (पहले भी उद्धृत) एक भाषण में उन्होंने कहा, “ भक्ति आन्दोलन ने वैयक्तिक मुक्ति और व्यक्ति के दैवीकरण पर जोर दिया. लेकिन शरण आन्दोलन ने सामाजिक बदलाव पर बल दिया. भक्ति आन्दोलन व्यक्ति की बेहतरी तक सीमित रहा जबकि शरण आन्दोलन ने सामाजिक प्रगति के लिए प्रयास किया.” संभव है कि उनका यह कथन हम में से भी कुछ को अटपटा लगे, क्योंकि हम हिन्दी-उर्दू भाषी क्षेत्र के लोग कबीर के सामाजिक विचारों से परिचित हैं. लेकिन बसवेश्वर कबीर से भी दो शताब्दी पहले पैदा हुए थे और सैकड़ों शरणों, शरणियों का समूचा वचन साहित्य सामाजिक क्रान्ति के विचार से ओत-प्रोत है. भक्ति आन्दोलन से उनकी भिन्नता और समानता के बिंदु हम तब तक ठीक से नहीं समझ पाएंगे जब तक हम इस पूरे साहित्य का अवगाहन न करें. यह वचन साहित्य अधिकाँश में अछूत, शूद्र आदि कही जानेवाली जातियों के संतों और स्त्री संतों द्वारा रचा गया, जबकि उसके आदि-प्रणेता बसवन्ना स्वयं ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे. श्री कलबुर्गी ने पारंपरिक धर्मसत्ता और पूंजीवादी राजसत्ताओं द्वारा वीरशैव आन्दोलन को उसकी सामाजिक क्रान्ति की चेतना और विवेकवादी परम्परा से काट कर अपने हित में आत्मसात किए जाने के विरुद्ध जो संघर्ष छेड़ रखा था, उसी संघर्ष में लगे उनके एक सहयोगी जाने-माने लेखक और पत्रकार लिंगानासत्यमपेटे की करीब तीन महीने पहले गुलबर्गा में हत्या कर उनके शव को गटर में फेंक दिया गया. पिछले साल १२ जून को संघ परिवार के नेताओं आर.एस.मुतलिक, एस. एल. कुलकर्णी, प्रमोद कट्टी, मुकुंद कुलकर्णी, अनिल पोतदार आदि ने बंगलुरु में श्री कुल्बर्गी के मूर्ति-पूजा के खिलाफ दिए गए बयानों को हिन्दू भावनाओं को आहत करनेवाला बताते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी. हाल ही में उन्होंने लिंगायतों को हिन्दू धर्म से अलग बताया जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को और भी नाराज़ किया. नाराजगी सिर्फ आस्था और ज्ञान की व्याख्या को लेकर नहीं थी, बल्कि उसका ठोस राजनीतिक परिप्रेक्ष्य यह था कि भाजपा का कर्नाटक में बड़ा आधार ब्राह्मणों के अलावा लिंगायत समुदाय से आता है. भाजपा के मुख्यमंत्री २००४ में येदुरप्पा ही बनाए गए जो लिंगायत समुदाय से आते हैं.
लेकिन श्री कुलबर्गी ने किसी तात्कालिक राजनीतिक कारणों से यह वक्तव्य नहीं दिया था. यह उनका मत पहले से ही था जिसके ठोस ऐतिहासिक और तार्किक सन्दर्भ हैं. वचन साहित्य के संग्रह ‘समग्र वचन सम्पुट’ के पहले पांच खण्डों में ही वेदों और यहाँ तक कि वेदान्त के विरोध में शरण और शरणियों के बहुतेरे पद मिल जाएंगे, जिनका स्वर तीखा है. डा. एन. जी. महादेवप्पा ने वैदिक प्राधिकार, बहुदेववाद, वैदिक कर्मकांड, ब्राह्मण पुरोहितों, जाति-प्रथा, संन्यास, तीर्थाटन, मंदिर पूजा आदि का निषेध करने के चलते वीरशैव मत को हिन्दू धर्म से अलग माना है. (देखें http://lingayatreligion.com/Lingayat/Lingayatism_An_Independent_Religion.htm) महज ब्रहम और जीव की एकता के सिद्धांत के चलते अनेक लोग वीरशैव मत को व्रेदांत के विशिष्टाद्वैत मत के अधीन रखते हैं, लेकिन अद्वैत मत का सिर्फ एक ही स्रोत या परम्परा हो, यह आवश्यक नहीं. महादेवप्पा के अनुसार, ” यह एक आम गलतफहमी है कि लिंगायत मत उस शैव मत की ही एक उप-धारा है, जो शैव मत स्वयं हिन्दू धर्म का ही एक सम्प्रदाय है और यह भी कि लिंगायत शूद्र होते हैं. लेकिन पाठगत साक्ष्य और तर्क पर आधारित सत्य यही है कि लिंगायत मत हिन्दू धर्म का सम्प्रदाय या उप-सम्प्रदाय नहीं, बल्कि एक स्वतन्त्र धर्म है.”
वास्तव में भारत में हिन्दू धर्म के भीतर भी सुधार आन्दोलन बार-बार चले और उसके बाहर भी. मध्य-युग का भक्ति आन्दोलन और आधुनिक युग में आर्यसमाज, ब्रहम-समाज आदि भीतर चले आन्दोलनों के उदाहरण हैं. लेकिन अनेक बार समाज-सुधारक इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे कि रूढ़ियाँ इतनी बलबती हैं कि भीतर सुधार की गुंजायश नहीं है. आचार-रीति आदि ही नहीं बल्कि दर्शन के स्तर पर भी हिन्दू मुख्यधारा से भिन्न आन्दोलन चार्वाक, लोकायत, बौद्ध, जैन आदि हैं. कलबुर्गी और महादेवप्पा आदि विद्वान लिंगायत को भी इसी श्रेणी में रखते हैं. आधुनिक युग में पेरियार और आम्बेडकर के आन्दोलन भी स्वघोषित रूप से इसी श्रेणी के हैं. यह एक बहुत बड़ी परम्परा है जो हिंदुत्व की मुख्यधारा में न पड़ते हुए भी भारतीय है. आज प्रो. कलबुर्गी की शहादत के अवसर पर उनकी प्रेरणा को स्थायी बनाने के लिए नए किस्म की भारतीयता को आकार देने का सांस्कृतिक- सामाजिक संघर्ष भी उतना ही ज़रूरी है जितना कि राजनीतिक स्वतंत्रता और आर्थिक बराबरी का. आज भी जब हम अंतरजातीय और अंतर-धार्मिक प्रेम और विवाह करनेवाले युवक-युवतियों की ह्त्या होते देखते हैं तो गौतम, वशिष्ठ और मनु के वे सूत्र याद आते हैं ( देखें – ‘धर्मशास्त्र का इतिहास- पी. वी काणे) जिनमें नीचे और ऊंचे कुल के बीच होनेवाले विवाहों के लिए विवाह करनेवाले स्त्री या पुरुष को मृत्युदंड देने के भयावह तरीकों का विधान किया गया है. वहीं बसवेश्वर को याद कीजिए जो ब्राह्मणी युवती और मोची युवक का विवाह कराते हैं और स्वयं उसका परिणाम भुगतते हैं. खुद सोचिए किस रास्ते आप नए भारत को ले जाना चाहेंगे.
मातृभाषा में मौलिक चिंतन का प्रतिमान
प्रो. कलबुर्गी १९८० के दशक के कन्नड़ भाषा आन्दोलन ( गोकाक आन्दोलन) के अग्रणी लोगों में थे. कन्नड़ अभिनेता डा. राजकुमार उसके सर्वमान्य नेता थे और शायद ही कोई महत्वपूर्ण कन्नड़ लेखक उस समय ऐसा रहा हो जो आन्दोलन में शामिल न रहा हो. श्री कल्बुर्गी आन्दोलन के प्रथम सत्याग्रहियों में थे. उन्होंने १०३ पुस्तकें लिखीं और यह साबित किया कि आज के समय में भी मातृभाषाओं में चिंतन और शोध के उच्चतम शिखर छुए जा सकते हैं. ख़ास कर उनकी रचनाएं अंग्रेज़ी में नहीं मिलतीं, अनूदित रूप में भी बहुत कम मिलती हैं. उन्होंने अपने कई यशस्वी समकालीन कन्नड़ लेखकों जैसे ए.के. रामानुजन की तरह मातृभाषा और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में एकसाथ नहीं लिखा. प्रायः रचनात्मक साहित्य तो मातृभाषाओं में रचा जाता है लेकिन वैदुषिक साहित्य को अंग्रेज़ी जैसी विश्व-भाषा में रचने का भारत में चलन है, ख़ास कर शिखर विद्वानों के बीच. श्री कलबुर्गी ने इसे स्वीकार नहीं किया. वे मातृभाषाओं में शिक्षा देने के प्रबल हिमायती थे और हाल ही में उन्होंने कर्नाटक सरकार से मांग की थी कि वह केंद्र सरकार से अपनी भाषा नीति स्पष्ट करने को कहे.
मित्रों, प्रो.कुलबर्गी, कामरेड गोवेंद पानसारे और डा. दाभोलकर की हत्याएं तथा पाकिस्तान और बांग्लादेश में परिपाटी से हट कर मुक्त विचार रखनेवालों की हत्याएं यह बताती हैं कि सही और सच्चे विचारों से क़ानून, राजनीति और विचारधारा के स्तर पर निपट पाना धर्मसत्ता, राजसत्ता, पितृसत्ता, पूंजी की सत्ता और वर्ण-व्यवस्था की सत्ता के व्यापक गठजोड़ के बावजूद इन ताकतों के लिए मुश्किल पड़ रहा है. इसीलिए व्यक्तिगत हत्याओं का सहारा लिया जा रहा है. नए भारत की खोज के लिए शहीद हुए इन अग्रजों के उसूलों और विचारों को आम जनता के बीच रचनात्मक प्रयासों से लोकप्रिय बनाना ही वह कार्यभार है जो उस लोकजागरण के लिए ज़रूरी है जिस के लिए वे जीवन भर संघर्षरत रहे और जो भारत के भविष्य की एकमात्र आशा है.
             pranay krishan
 (प्रणय कृष्ण जन संस्कृति मंच के महासचिव हैं) 

बुधवार, 2 सितंबर 2015

विख्यात कन्नड़  साहित्यकार प्रो. कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ जन संस्कृति मंच का बयान


प्रो. कलबुर्गी की हत्या की अविलंब जांच कराई जाए और हत्यारों को दण्डित किया जाए: जसमप्रो. एमएम कलबुर्गी, का. गोविंद पनसारे और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर के विचारों से जनता को अवगत कराने का निर्णय


 


नई दिल्ली: 2 सितंबर 2015
कन्नड़ भाषा के विख्यात विद्वान और लिंगायत मत के विश्वविख्यात विशेषज्ञ साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता 77 वर्षीय प्रो. एम. एम. कलबुर्गी की 30 अगस्त को कर्नाटक के धारवाड़ जिले में उनके घर पर गोली मारकर हत्या कर दी गयी। पुणे और कोल्हापुर में डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर और कामरेड गोविंद पंसारे जैसे अंधविश्वासविरोधी कार्यकर्ताओं और विद्वानों की हत्या के बाद अब धारवाड़ में प्रो. कलबुर्गी की हत्या इसका स्पष्ट संकेत है कि भारत एक ‘अंधे युग’ में प्रवेश कर गया है, जहां तर्कशीलता, प्रगतिशीलता और धार्मिक-सामाजिक सुधार की सारी वैचारिक परपंराएं खतरे में हैं, बर्बर अंधधार्मिक, सांप्रदायिक हत्यारे धर्मसत्ता और राजसत्ता के संरक्षण में बेखौफ घूम रहे हैं। जिस देश में मूर्तिपूजा के विरोध की ताकतवर वैचारिक परंपरा रही है, वहां प्रो. कलबुर्गी जैसे मूर्तिपूजा विरोधी विद्वान की हत्या दरअसल अपनी परंपरा के प्रगतिशील पहलू की भी हत्या है। 
सन 2014 में कर्नाटक सरकार द्वारा ‘अंधश्रद्धा विरोधी विधेयक’ पर बहस में भाग लेते हुए श्री कलबुर्गी द्वारा मूर्ति-पूजा के विरोध में कही गयी बातों के खिलाफ उन्हें विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल ने धमकियां दी थीं। कुछ समय तक उन्हें पुलिस सुरक्षा भी सरकार ने उपलब्ध कराई थी। श्री कलबुर्गी कई दशकों से कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे थे। 1989 में उनकी लिखी एक पुस्तक में लिंगायत मत के संस्थापक संत बसवेश्वर (जिन्होंने स्वयं अंधश्रद्धा, जाति-प्रथा, साम्प्रदायिक और लैंगिक भेद-भाव के विरुद्ध 12वीं सदी में ही युद्ध छेड़ा था) के जीवन-प्रसंग से सम्बंधित दो अध्यायों को उन्हें कट्टरपंथियों के दबाव में वापस लेना पड़ा था। इस घटना पर व्यथित होकर उन्होंने कहा था कि ‘मैंने अपने परिवार की सुरक्षा के लिए यह किया, लेकिन इसी दिन मेरी बौद्धिक मृत्यु हो गयी।’ पिछले दिनों तमिल लेखक मुरुगन ने भी ऐसे ही हादसे से गुजरते हुए अपने लेखक की मौत की घोषणा की थी। प्रो. कलबुर्गी की हत्या पर बजरंग दल के एक प्रतिनिधि भुवेश शेट्टी ने तो ट्विटर पर हर्ष भी ज्ञापित किया और साथ ही एक अन्य बड़े कन्नड़ लेखक के.एस. भागवान को अगला निशाना घोषित किया। 
जन संस्कृति मंच का यह मानना है कि हिन्दुत्ववादी उपद्रवियों के खिलाफ आतंक के कई मामलों में मुकदमों को कमजोर कर रही मोदी सरकार के आने के बाद संघी दहशतगर्दों के हौसले लगातार बढ़ रहे हैं। महाराष्ट्र की भाजपा सरकार दाभोलकर हत्या की जांच के लिए सीबीआई को जरुरी स्टाफ तक मुहैया नहीं करवा रही है। मोदी सरकार और उसकी जांच एजेन्सियां तीस्ता शीतलवाड़  जैसे सांप्रदायिकता विरोधी कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न कर रही हैं। ओड़ीशा में हेतुवादी आंदोलन के नेताओं को संघी लगातार खुलेआम धमका रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी सांप्रदायिकता विरोधी और प्रगतिशील विचारों वाले कार्यकर्ताओं को संघियों की धमकियां लगातार मिलती रहती हैं। जन संस्कृति मंच न सिर्फ ऐसी घटनाओं की भर्त्सना करता है बल्कि तमाम प्रगतिशील-जनवादी सांस्कृतिक शक्तियों से अपील भी करता हैं कि इस मुल्क की धर्मनिरपेक्षता को सुरक्षित रखने और बुलंद करने के लिए साझा कार्यवाहियों के सिलसिले को तेज करें। 
हमारी मांग है कि प्रो. कलबुर्गी की हत्या की बिना देर किये जांच कराई जाए और हत्यारों को दण्डित किया जाए, और साथ ही संघी दहशतगर्द संगठनों की फंडिग और उनकी ट्रेनिंग आदि की जांच विस्तार से कराने के लिए कदम उठाए जाएं। तमाम संघी आतंकी मुकदमों को एनआईए द्वारा कमजोर करने की साजिशों को रोकने के लिए न्यायपालिका तत्काल पहल ले।
जन संस्कृति मंच ने प्रो. कलबुर्गी के लेखन के साथ-साथ शिवाजी पर कामरेड गोविंद पंसारे की पुस्तक के अंशों और डाॅ. नरेंद्र दाभोलकर के कार्यों पर केंद्रित विचार गोष्ठियों और नाट्य प्रस्तुतियों के जरिए उनके विचारों से जनता को अवगत कराने का भी निर्णय लिया है, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके विचारों के महत्व को समझें और यह निर्णय करें कि इन बुर्जुग विद्वानों की हत्या करके हत्यारों ने समाज और देश को कितना भारी नुकसान पहुंचाया है। देश भर में प्रो. कलबुर्गी की हत्या के खिलाफ हो रहे संयुक्त विरोध प्रदर्शन दरअसल इसी बात का संकेत दे रहे हैं कि हत्या के बल पर विचारों को रोकने का हत्यारों का मकसद सफल नहीं होगा। जन संस्कृति मंच की सारी इकाइयां इस तरह के विरोध प्रदर्शनों में शामिल रहेंगी और इस साझी लड़ाई को आगे बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाएंगी।
जन संस्कृति मंच की ओर से सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सहसचिव द्वारा जारी
संपर्क- 09958672277

बुधवार, 22 जुलाई 2015

लेखक संगठन, सांस्कृतिक आंदोलन और प्रेमचन्द

प्रेमचंद हिन्दी भाषा की उन्नति और समृद्धि के प्रतीक हैं। लेकिन वे भाषा के माध्यम से भेद फैलाने के हरदम खिलाफ रहे। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्रेमचंद को शांतिनिकेतन आमंत्रित किया था एक पत्र लिखकर। उस पत्र में उन्होने लिखा था कि ‘आपके साहित्य ने हिन्दी को समृद्ध किया  है और हिन्दी भाषियों को दुनिया में मुंह दिखाने लायक। इसीलिए आपके यश को हम लोग निर्विचार बाँट लिया करते हैं। जब हम रंगभूमि या कर्मभूमि को दूसरों को दिखाते हैं तो मन ही मन गर्व पूर्वक पूछा करते हैं –है तुम्हारे पास कोई ऐसी चीज!और इस प्रकार का गर्व करते समय हमें प्रेमचंद नामक किसी अज्ञात अपरिचित व्यक्ति की याद भी नहीं रहती-मानो सब कुछ हमारी ही कृति हो।’ वे सचमुच बड़े लेखक थे, इसलिए कि एक लेखक के सरोकार क्या हैं,  उसे जानते थे। बनारस उनका प्रिय शहर था। उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘कदासतपरस्ती (रूढिवादिता) का अड्डा’। उसने उनकी मदद भी की। रूढ़ियों को समझने में। पर तरक्कीपसंदगी की जो शमा उन्होने रोशन की उससे रूढ़िवादिता के खिलाफ एक जनपक्षधर माहौल तैयार हुआ। एक पत्र में उन्होंने लिखा कि- ... ‘मुझपर यह दोष लगाया है कि मैं ब्राह्मण वर्ग का द्रोही हूँ सिर्फ इसलिए कि मैंने इन पुजारियों और महंतों और धार्मिक लुच्चे-लफंगों के कुछ पाखंडों का मज़ाक उड़ाया है। उनको वह ब्राह्मण कहता है  और जरा भी नहीं सोचता कि उनको ब्राह्मण कहकर वह अच्छे भले ब्राह्मणों का कितना अपमान करता है। ब्राह्मण का मेरा आदर्श सेवा और त्याग है,वह चाहे कोई भी हो। पाखंड और कट्टरता और सीधे साधे  हिन्दू समाज के अंधविश्वास का फायदा उठाना इन पुजारियों और पंडों का धंधा है और इसीलिए मैं उन्हें हिन्दू समाज का एक अभिशाप समझता हूँ और उन्हें अपने अधःपतन के लिए उत्तरदायी समझता हूँ। वे इसी काबिल हैं कि उनका मखौल उड़ाया जाए और यही मैंने किया है। यह निर्मल और उसी थैली के चट्टेबट्टे दूसरे लोग ऊपर से बहुत राष्ट्रीयता वादी बनाते हैं मगर उनके दिल में पुजारी वर्ग की सारी कमजोरियां भारी पड़ी है और इसीलिए वे हमलोगों को गालियां देते हैं जो स्थिति में सुधार लाने की कोशिश कर रहे है।’ प्रेमचंद आज होते तो क्या कहते जब देखते कि ‘सुधरी हुई स्थितियों’ को इस देश का प्रधानमंत्री शीर्षासन कराने पर आमादा है। वह गंगा के तट पर बैठकर आरती कराता है और निर्मल गंगा के नाम पर पाखंडी और भ्रष्ट पंडों पुरोहितों को अंधविश्वास और कर्मकांड का खुला खेल खेलने के लिए प्रोत्साहित करता है।            

जद्दोजहद, परेशानियां, तकलीफ दुख हर व्यक्ति के जीवन का हिस्सा होते हैं। एक लेखक का जीवन तो और ज्यादा इन चीजों से घिरा रहता है। पर अपने ‘स्व के सुख’ की चिंता से दूर जो जीवन रचना के केंद्र में हैं, उसको बेहतर बनाने की कल्पना हर रचनाकार करता है। इस प्रक्रिया में भी उसे द्वंद्व  से गुजरना पड़ता है। इन द्वन्द्वों का विसर्जन करके ही वो नई मशाले जला पाता है। प्रेमचंद का लेखकीय दायित्त्वों के प्रति समर्पण इसका उदाहरण है। लिखना उनके लिए कोई निजी कार्यवाही नहीं थी। हिन्दी क्षेत्र में एक बड़े लेखक की अपने लेखन से क्या अपेक्षा और आकांक्षा थी -इसका पता हमें बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे एक पत्र से चलता है- ‘बात यह है कि अभी तक साहित्य को हम व्यवसाय के रूप में ग्रहण नहीं कर सकते। मेरा जीवन तो आर्थिक रूप से असफल है और रहेगा। ‘हंस’ निकालकर मैंने किताबों की बचत का भी वारा न्यारा कर लिया। ...मेरे आकांक्षाए कुछ नहीं है। इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है हम स्वराज्य संग्राम में विजयी हो। धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही। खाने भर को मिल ही जाता है। मोटर और बंगले की मुझे हविश नहीं। हाँ, यह जरूर चाहता हूँ कि दो-चार ऊंची कोटि की पुस्तकें लिखूँ पर उनका उद्देश्य स्वराज्य विजय ही है।’ लेखन उनके लिए कोई आय का जरिया न था। उदात्त समर्पण देश की आजादी के प्रति साफ दिखता है इन शब्दों में। हिन्दी में लिखने की दुश्वारिया समझते थे। अपने मित्रों को अङ्ग्रेज़ी में लिखने का सुझाव भी देते थे। पर खुद उस भाषा को माध्यम बनाया जिससे देश सेवा की जा सकती हो, आमदनी नहीं।

आज हिन्दी समाज में संगठित लेखन, सांस्कृतिक आंदोलन, को बड़ी हिकारत से देखा जा रहा है। हर कोई लेखक संगठनों को गाली देते हुए उनके निकम्मेपन के बारे में फतवे जारी कर देता है। संगठन बनाना वह भी वैचारिक आधार पर बहुत मुश्किल काम होता है। लेनिन ने तो उसकी तुलना ‘ मेढक तौलने’ से की थी। संगठनो के बारे में हिन्दी क्षेत्र के भीतर एक भ्रांति और फैलाई गई है। वह यह कि यहाँ सारे निर्णय ‘ऊपर से’ थोप दिए जाते है। लेखक संगठन बस उसका पालन कराते हैं जो उन्हें बताया जाता है। एक बात यह भी अक्सर सुनने में आती है कि लेखक का काम लिखना है संगठन बनाने का काम दूसरे लोगों का है। प्रेमचंद ने प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन का अध्यक्ष बनाना स्वीकार किया था। किन्तु उसके बहुत पहले से वे हिन्दी परिषद के जलसों में जाते रहे थे। संगठन बेहतर कैसे हो, इसकी चिंता भी उन्हें थी। प्रलेस की स्थापना के लिए एक बैठक इलाहाबाद में हुई थी। 28 नवंबर 1934 को जैनेन्द्र कुमार को एक पत्र में उन्होने लिखा कि-‘ प्रयाग में लेखक संघ का विवरण तुम्हें मिल गया होगा। बहुत से साहित्यिक उसमें मिल गए हैं, लेकिन दिमाग वाला आदमी अभी तक नजर नहीं आता। यूं हमारे यहाँ दिमाग वाले हैं ही कितने। तुम इस संघ में आ मिलो और ऐक्टिव इन्टरेस्ट लो तो शायद कुछ हो। मेरा नाम सभापति के लिए पेश किया गया है। मेरा नाम सभापति के लिए पेश किया गया है। मेरे जैसा सभापति जिस संस्था का हो वह क्या होगी। मैंने डॉ भगवान दास, पंडित वेंकटेश नारायण तिवारी या पंडित नरेन्द्रदेव जी का नाम प्रपोज किया है।’ प्रेमचंद यह समझते थे कि बड़ा लेखक अगर ऐक्टिव इन्टरेस्ट लेगा तो उससे संगठन और लेखक दोनों का फायदा होगा। यह जरूर है कि लेखक संगठनों में तमाम लेखक ‘निष्क्रिय इन्टरेस्ट’ से रहते हुए संगठन के लिए और अपने लिए भी मुश्किल खड़ी कर लेते है। मुक्तिबोध के शब्द लेकर कहूँ तो ‘मानो मेरे निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया, मानो मेरे कारण ही दुर्घट/ हुई यह घटना।’ ऐसा ही एक पत्र उन्होने बनारसी दास चतुर्वेदी को भी लिखा था जिसमें हिन्दी क्षेत्र में सांस्कृतिक संगठन के काम-धाम और उसकी सक्रियता के क्षेत्रों की चर्चा की थी।  
अपने सभापतितत्व को लेकर जरूर प्रेमचंद के मन में संशय था।  जिन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना का प्रयास चल रहा था, सज्जाद जहीर लगातार प्रेमचंद के संपर्क में थे। इसके गवाह है प्रेमचंद और सज्जाद जाहीर के बीच के पत्राचार। इन पत्रों से प्रेमचंद की एक दूसरी ही तस्वीर उभर कर सामने आती है। दिल्ली में लेखको की एक सभा कायम की थी प्रेमचंद ने। सज्जाद जहीर को इसकी जानकारी देते हुए लिखा कि- ‘हमने देहली में एक हिंदोस्तानी सभा कायम की है जिसमें उर्दू और हिंदी के अहले अदब (साहित्यकार) बाहम तबादलए-खयालात (पारस्परिक विचार विनिमय)कर सके। सियासी मुदब्बिरों ने जो काम खराब किया है उसे अदीबों को पूरा करना पड़ेगा,अगर सही किस्म के अदीब पैदा हो जाए।’ ऐसे ही नहीं कहा था प्रेमचंद ने कि-साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। उसका पूरा नक्शा भी बना रखा था। राजनीति की हर दक़ियानूसी को वे साहित्य और संस्कृतिकर्म के सहारे दूर करना चाहते थे। उसके जरूरी सामान अच्छे साहित्य और संगठन के भीतर वे देख पा रहे थे। उसी पत्र में लिखा कि-‘पहले हम खुद ता वाजे तौर पर (स्पष्ट रूप से) समझ लें कि हम लिटरेचर को किस तरफ ले जाना चाहते हैं, जभी हम दूसरों को रास्ता दिखा सकते हैं। जब हमें तबलीग (प्रचार)करना है तो उसके लिए असलाहे से मुसल्लेह (शस्त्र सज्जित) होना पड़ेगा।’ सज्जाद को लिखे तीसरे पत्र में उन्होने संगठन को निचले स्तर तक ले जाने की जरूरत बल देते हुए लिखा कि- बेशक मक़ामी कमेटियों से मुस्तकिल और जिंदा (स्थाई और जाग्रत) दिलचस्पी कायम रहेगी। देहली कि हिंदोस्तानी सभा का मकसद सिर्फ इत्तेहाद (एकता) और एक मुश्तरक जबान (साझी भाषा) की तहरीक को कायम रखना है। 
इन सभी पत्रों में सबसे महत्त्वपूर्ण है छ्ठा पत्र जो संभवतः सम्मेलन के ठीक बाद लिखा गया था। नई ज़िम्मेदारी के अहसास से भरे प्रेमचंद ने इस पत्र मे साहित्यिक गतिविधियों के लिए भी पूरा वक्ती कार्यकर्ता की जरूरत को प्रेमचंद ने रेखांकित किया था। संगठन निर्माण की दुश्वारीयों से झूझते हुए किन्तु लगातार नए लक्ष्य निर्धारित करते प्रेमचंद खुद को एक ‘बूढ़े जवान’ के रूप में पाते है। पूरा पत्र इस प्रकार है- 

डियर सज्जाद,

तुम्हारा खत मिला। मैं एक दिन के लिए ज़रा गोरखपुर चला गया था और वहां देर हो गयी। मैंने यहां एक ब्रांच (प्रगतिशील लेखक संघ) कायम करने की कोशिश की है। तुम उसके मुतल्लिक (प्रगतिशील आंदोलन संबंधी) जितना लिट्रेचर हो वो सब भेज दो, तो मैं यहां के लेखकों को एक दिन जमा करके बातचीत करूं, बनारस कदासतपरस्ती (रूडिवादिता) का अड्डा है और हमें मुखालफत का भी सामना करना पडे। लेकिन दो-चार भले आदमी तो मिल ही जाएंगे जो हमारे साथ सहयोग कर सकें। अगर मेरी स्पीच (लखनऊ प्रगतिशील लेखक संघ सम्मेलन भाषण) की एक उर्दु कापी भेज दो और उसका तर्जुमा अंग्रेजी में हो गया हो तो उसकी चंद कापियां और मेम्बरी के फार्म की चंद परतें और लखनऊ कांग्रेस की कार्रवाई की रिपोर्ट वगैरह तो मुझे यकीन है कि यहां शाखा खुल जाएगी।
फिर पटना भी जाऊंगा और वहां भी एक शाखा कायम करने की कोशिश करूंगा। आज बाबू संपूरनानन्द (संयुक्त प्रांत के तत्कालीन शिक्षा मंत्री) से इसी सिलसिले में कुछ बातें हुयीं। वो भी मुझी को आगे करना चाहते हैं। मैं भी चाहता था कि वो पेशकदमी करते,मगर शायद उन्हें मसरूफियतें बहोत हैं। बाबू जयप्रकाश नारायण से भी बातें हुयीं, उन्होंने प्रोगेसिव अदबी हफ्तेवार (साप्ताहिक) हिंदी में साया करने की सलाह दी जिसकी उन्होंने काफी जरूरत बतायी। जरूरत तो मैं भी समझता हूं, लेकिन सवाल पैसे का है। अगर हम कई शाखें हिन्दी वालों की कायम कर लें, तो मुम्किन है माहवार या हफ्तेवार अखबार चला सकें। अंग्रेजी अखबार का मसअला भी सामने है ही।
मैं समझता हूं कि हर बार एक जबान में एक प्रोग्रेसिव परचा चल सकता है। जरा मुसाइदी (लगन) की जरूरत है। मैं तो युं भी बुरी तरह फंसा हुआ हूं। फिक्रे-मआश (रोज़ी की फिक्र) भी करनी पडती है। फजूल का बहोत सा लिटरेरी काम भी करना पडता है। अगर हम में से कोई होल टाइम काम करने वाला निकल आए तो मरहला बडी आसानी से तय हो जाए। तुम्हे भी कानून ने गिरफ्त कर रखा है……खैर इन हालात में जो कुछ मुम्किन है वही किया जा सकता है।


          तुम्हारा ‘बीमार’ (सज्जाद जहीर कृत एकांकी) तो मुझे अभी तक नहीं मिला। मिस्टर अहमद अली साहब क्या इलाहाबाद में हैं? उन्हें दो माह की छुट्टी है। वो अगर पहाड जाने की धुन में न हो, तो कई शहरों में दौरे कर सकते हैं और आगे के लिए उन्हें तैयार कर सकते हैं। बीमार अभी तक न भेजा हो,तो अब भेज दो।

यह खबर बहोत मसरर्तनाक (प्रसन्नता) है कि बंगाल और महाराष्ट्र में कुछ लोग तैयार हैं। हां यहां सूबेजाती (प्रांतीय) कांफ्रेंसें हो जाए तो अच्छा ही है और अगला जलसा पूजा में ही होना चाहिए,क्योंकि दूसरे मौके पर राइटरों का पहुंचना मुश्किल हो जाता है। फाकामस्ती की जमाअत जो ठहरी। वहां तो एक पंथ दो काज हो जाएगा।
हिन्दी वाले इन्फीरियटी काम्पलेक्स से मजबूर है। मगर गालेबन यह ख्याल तो नहीं है कि यह तहरीक उर्द वालों ने उन्हें फंसाने के लिए की है, अभी तक उनकी समझ में इसका मतलब ही न आया है। जब तक उन्हें जमा करके समझाया न जाएगा, युं ही तारीक़ी में पडे रहेंगे। एक नौजवान हिन्दी एडीटर ने जो देहली के एक सिनेमा अखबार का एडिटर है, हमारे जलसे पर यह एतराज किया है कि इस जलसे की सदारत (अध्यक्षता), तो किसी नौजवान को करनी चाहिए थी,प्रेमचंद जैसे बूढे आदमी इसके सद्र क्यों हुए ? उस अहमक को यह मालूम नहीं कि यहां वही जवान है जिसमें प्रोग्रेसिव रूह हो। जिसमें ऐसी रूह नहीं वो जवान होकर भी मुर्दा है।
नागपुर में मौलवी अब्दुल हक साहब भी तहरीक लाए थे उनसे दो रोज खूब बातें हुयीं। मौलाना इस सिनोसान में बडे जिंदादिल बुजुर्ग हैं।
क्या बताऊं मैं ज्यादा निकाल सकता, तो कानपुर क्या हर शहर में अपनी शाखें कायम कर देता। मगर यहां तो प्रूफ और खतूतनवीसी (खत लिखना) से फुरसत नहीं मिलती।
हां चोरी हुई (प्रेमचंद के घर में) मगर तशफ्फी (धैर्य) इस ख्याल से करने की कोशिश कर रहा हूं कि मुझे एक हजार रूपया अपने पास रखने का क्या हक़ था।


                                                                 मुखलिस
                                                                  प्रेमचंद 

उनके लिए नौजवान का मतलब ही था प्रगतिशील खयालात से युक्त व्यक्ति। अपनी मजबूरीयों और कमजोरियों के प्रति जैसा निर्मम रुख इस पत्र में उन्होने प्रकट किया है वह आज के तमाम लेखको के लिए भी प्रेरणा का विषय बन सकता है। अपनी तिल भर समस्या को ताड़ बना देने की प्रवृत्ति हिंदी  के लेखकों में खूब देखी जा सकती है।अपने से संघर्ष करके संगठन और सांस्कृतिक आंदोलन को किस दिशा में ले जाना है,  इसकी जद्दोजहद लगातार कम होती गई है। अब जबकि सत्ताएँ संस्कृतिकर्म की पहरेदारी दुबारा अपने हाथ में लेनी की तैयारी कर रही हैं, संगठित सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत पहले से ज्यादा हो गई है। क्या इस दिशा में हम प्रेमचंद से कुछ सीखने को तैयार हैं?  
  
    


शुक्रवार, 12 जून 2015


'यह जो शहर है गोरखपुर'- हरिओम


(योगी आदित्यनाथ का यह बयान निहायत बेहूदा और अतार्किक है कि 'जो लोग सूर्य नमस्कार को नहीं मानते, उन्हें समुद्र में डूब जाना चाहिए।' लोकसभा चुनाव के समय से ही देश भर में रह रही तरक्कीपसंद आवाम और मुसलमानो के लिए 'देश छोडकर चले जाना चाहिए' जैसी धमकियाँ  आम हो गई हैं। मानो देश न हो , बाबू साहब का चौखटा हो जिसे छोड़ने की धमकी बाऊ साहब जब जिसे चाहें दे सकते है। योग को धर्म से जोड़कर जो गंदी राजनीति इस देश में की जा रही है उसका पूरजोर विरोध करना चाहिए। मेहनतकश गरीब जनता का सांप्रदायीकरण इस पूरे घटनाक्रम की केंद्रीय कुंजी है। योगी ने तो पूरे पूर्वाञ्चंचल को सांप्रदायिक प्रयोगों की पाठशाला बना रखा है, विश्वास नहीं होता कि यह उसी गोरखनाथ के पीठ का उत्तराधिकरी है जिन्होंने कभी तमाम तरह की शास्त्रीय रूढ़ियों और कठमुललेपन को बौद्धिक चुनौती दी थी । भारत जैसे देश में किसी को किसी की धार्मिक भावनाओं से खेलने का कोई हक नहीं है। गोरखपुर रामप्रसाद बिस्मिल, प्रेमचंद और फ़िराक गोरखपुरी की धरती है, वहाँ पर फिरकापरस्ती का धंधा बंद होना चाहिए। लीजिये पढिए कवि-कथाकार हरिओम की कविता 'यह जो शहर है गोरखपुर'। यह कविता उन्होंने गोरखपुर का जिलाधिकारी रहते हुए लिखी थी।)

'यह जो शहर है गोरखपुर'- हरिओम

ये जो शहर था बिस्मिल का
ये वह शहर तो नहीं
जिसके सिरहाने
कभी बजा था कोई बिगुल
और चौंक कर
उठा था इतिहास
ये वह जमीं तो नहीं
जिसकी मिट्टी अपनी सूखी त्वचा
पर मल कभी खेत मजदूरों ने
ठोंकी थी ताल और
आकाश के छाती से उतर
भागे थे फिरंग

ये धुआंती हवा
नहीं देती पता उस अमोघ वन का
जिसने किसी राजा के आँखों में
छोड़ा था आजादी का हरा भरा स्वप्न
और जिसने बसाई थी
जुगनुओं की एक राजधानी सुंदर
इस शहर के सीवान में
अब कैसे ढूँढे वह वृक्ष
जिसके नीचे
शताब्दियों बैठे रहे गोरख
और रचते रहे
अज्ञान और पाखंड के
नाश का अघोर पंथ

नहीं दिखती
चिटखी मीनारों वाली ईदगाह में
वो नन्ही चहक
जहां साहित्य के किसी मुंशी ने
हामिद के हाथों में सौपा था
दादी का चिमटा

अब जबकि
किसी शहर से छीन ली गई हो
उसकी विरासत
परंपरा के पहिये को मोड़
उलट दी गई हो उसकी गति
कैसे मिल सकेंगे फिर
राहत, देवेन्द्रनाथ
धरीक्षण,मोती और फिराक

नदियों की गोद में खेलता एक शहर
जिसके माथे पर मचलती रहे
उमगते चाँद की ठंडाक
और जो तब भी
बूढ़ा होने से पहले हो जाए बंजर
एक शहर
लोग कहते हैं
जिसका अक्स कभी
झील में चमकते परीलोक-सा
लगता था

एक शहर जिसके
सुर्ख चेहरे पर चढ़ा हो पीला लेप
जिसके जिस्म से गुजरते हों
उन्माद के ज्वार अक्सर
जहां आदिम मुद्दों
पर चलती हो बहसें
दिन-रात
ठेका-पट्टों और लाईसेंसों की
बिसात पर नाचती हो सियासत

एक शहर
जहाँ पलते हों विराट राष्ट्र के
सैन्य स्वप्न और
टाउन से उपस्थित हो गाउन
ये वो शहर तो नहीं
जिसके बारे में
उजली हंसी के छोर पर बैठ
आधी सदी से
सोच रहे हो परमानंद
या जहां कॉमरेड जीता कौर ने
रामगढ़ ताल के किनारे
माथे पर साफा बांध
छोटी जमीन वाले किसानों
और बुझी आँखों वाली
स्त्रियॉं के मन में
जगाया था संघर्ष और जीत का जज्बा

ये वो शहर है
जहां से आरंभ होगा
हमारी सदी का शास्त्रार्थ
जिसमें भाग लेंगे नीमार,गजोधर, रुक्मा और भरोस
और कछारों के वे किसान
जिनके खेतों में उगती
रही है भूख
वे जुलाहे जिन्होंने
चरखों की खराद पर काटी हैं
अपनी उंगलिया
वे मजदूर जो
ठंडे पड़ गए कारखानों की
चिमनियों से लिपट पुश्तों से कर रहे
अपनी बारी का इंतजार

इस शास्त्रार्थ में
उतरेंगी वे लड़किया भी
जो दादी नानी के जमाने से
जवान होने की ललक में
हो जाती हैं बूढ़ी
और पूछेंगी
अपने जीवन का पहला प्रश्न
और स्वयं ही देंगी
उसका जवाब

हमारी सदी के
इस अद्भुत विमर्श
को सुनेंगे
योग भोग के पुरोधा
पांडे और पुरोहित
मौलवी और उलेमा
हाकिम-हुक्काम
सेठ-साहूकार
मंत्री और ठेकेदार

इस शास्त्रार्थ में
नहीं होंगे वे विषय
जिन्हें पाषाण काल से पढ़ाते रहे
परमपूज्य गुरुवर
और न ही होंगे वे
मसाइल
जिनके समाधान में
मालामाल होते रहे मुंसफ और वकील

हमारी सभ्यता के
इस उत्तर-आधुनिक समय में
पूछे जाएँगे
संस्कृति के आदिम प्रश्न
कि पंचो के राज में
भूख से क्यों मारता है बिकाऊ ?
कि मछुआरों के खेल में
कैसे सूखते हैं ताल?
कि इतने भाषणों के बावजूद
दरअसल क्यूँ मर जाती है भाषा?
कि इस शहर में प्रेम करना क्यूँ है इतना मुश्किल ?

या फिर
सिर्फ यही
कि ये जो शहर है गोरखपुर
ये वह शहर क्यूँ नहीं?                  

जसम का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन

जन संस्कृति मंच का 14वां राष्ट्रीय सम्मेलन
31जुलाई- 01अगस्त, 2015

इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि 
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौन्दर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति,
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद-
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ, सुन्दर जाल-
केवल एक जलता सत्य देने टाल

मुक्तिबोध : 
'पूंजीवादी समाज के प्रति' शीर्षक कविता (1940- 42) से 


2015  के भारत के नए 'कंपनी राज' के नेताओं-कारिंदों की मानें तो तमन्नाओं और हसीन सपनों, इसी धरती पर स्वर्ग का आनंद लेने, फैशन, लाइफस्टाइल और अंतहीन उपभोग के विश्व-प्रतिमानों को छू लेने का समय भारतवासियों के लिए आ गया है. बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, आठ लेन की सड़कें, खूबसूरत विश्वस्तरीय कारें, क्लब, पब, होटल और अपार्टमेंट्स, हैरतंगेज़ उपभोक्ता वस्तुएं जिनके लिए 'इंडिया' का दिल धड़कता है, अब हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही हैं. अच्छे दिन आ गए हैं. पूंजीवाले सारी दुनिया से आ रहे हैं 'नया इंडिया' बनाने. हमें बस उन्हें अपनी प्राकृतिक और बौद्धिक संपदा मुक्त हाथों से सौंप देनी है. दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा बेरोजगार और गरीब यहाँ रहते हैं, वे असंभव सी मजदूरी दर पर काम करके 'हमारे' सपनों का भारत बना डालेंगे.

भारत का वर्तमान 'कंपनी राज', अपना अलग 'ज्ञान-काण्ड' रच रहा है, सौन्दर्य के अपने प्रतिमान निर्मित कर रहा है. मुनाफे के लिए अबाध लूट को 'सबका विकास' बता रहा है, जबकि विकास दर की बुलंदियों के वर्षों में भी औसत हिन्दुस्तानी की खाद्य ज़रुरत (कैलोरी इंटेक) में लगातार कमी यानी गरीबों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है. पिछले एक साल में किसान आत्महत्या कुछ प्रदेशों से बाहर निकलकर पूरे भारत की परिघटना बन गयी है. यही वे जलती सच्चाइयां हैं जिन्हें टाल देने को एक अद्भुत सुन्दर जाल बिछाया गया है. लगता ही नहीं कि दुनिया के सबसे ज़्यादा गरीब, सबसे ज़्यादा बेरोजगार, सबसे ज़्यादा निरक्षर इसी देश के रहनेवाले हैं.

यह एक बहुत पुराना देश है हमारा जहां खेत-खलियान, नदियाँ, पहाड़, जंगल और मनुष्य- सब का अब एक ही मूल्य निश्चित किया जा रहा है- वह यह कि वे 'मुनाफे की सभ्यता' के कितने काम के हैं, कितने नहीं. इनके मालिक अब देशवासी नहीं , बल्कि देशी-विदेशी पूंजी के सरदार होंगे. भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम (1857) के दौरान अजीमुल्ला खान द्वारा रचित राष्ट्रीय गीत की पहली पंक्ति थी- 'हम हैं मालिक इसके हिन्दोस्तान हमारा'. अब इस देश की मालिक हैं 'कम्पनियां'. इन कंपनियों के मुनाफे की प्यास बुझाने के लिए कितने खेत-खलियान काम आएँगे, कितनी नदियाँ बांधी, उलीची या कचरों से पाटी जाएँगी, कितने पठार-पहाड़ धरती के गर्भ में छिपी निधियों की लूट के लिए तोड़े जाएंगे, कितने जंगल मुनाफे की आग मे जलेंगे और कितने मनुष्य जो इन पर निर्भर हैं अपनी जड़ों और जीविका के साधनों से उखाड़े जाएंगे, इनका आकलन, सर्वेक्षण करके पूंजी के सरदारों को सौंपना आज 'ज्ञान' कहला रहा है. प्रकृति और मनुष्य के श्रम (शारीरिक और बौद्धिक) को पूंजी के मुनाफे में तब्दील करने में बहुत सा प्रबंधन, बहुत सा शोध, बहुत सा कौशल, बहुत सी प्रौद्योगिकी, बहुत सी कला, बहुत सा ज्ञान-विज्ञान लगा है और यही आज की 'नॉलेज सोसायटी' का क्रिया-व्यापार है.

अब अंतिम तौर पर यह बात समझ लेने की है कि शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, पानी, हवा. भोजन और मकान जैसी चीज़ें नागरिकों का अधिकार नहीं है, जिन्हें सुनिश्चित करने को सरकारें चुनी जाती हैं. अब ये सब चीज़ें पूंजी के मालिकों से खरीदनी होंगीं और उन्हीं के लिए और उसी अनुपात में उपलब्ध होंगी जिनके पास जितने लायक पैसा है. यही 'गवर्नेंस' है.

पिछले 25 सालों से जारी भारत के भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में पिछला साल एक नया और खतरनाक मोड़ लेकर उपस्थित हुआ. विश्वव्यापी आर्थिक मंदी (2008, 2011) से पूंजी के मुनाफे की दरों की बढ़त में रुकावट आई. मुनाफे को बढाने का एकमात्र तरीका था प्राकृतिक संसाधनों की लूट और श्रमशक्ति के अबाध शोषण के रास्ते में आनेवाली हर बची खुची बाधा को निर्ममता के साथ ख़त्म करना. श्रम क़ानून और मनरेगा जैसी योजनाएं श्रमशक्ति की लूट में बाधा थीं और भूमि अधिग्रहण क़ानून, वन अधिकार क़ानून, खाद्य सुरक्षा कानून आदि प्राकृतिक संसाधनों की लूट के रास्ते की रुकावटें थीं. इस लूट-पाट पर निगरानी रखने और जनता की नज़र में लानेवाले सूचना के अधिकार जैसे क़ानून और न्यायपालिका, सी.वी.सी., सी.ए.जी. आदि संस्थाओं को निष्प्रभावी बनाना ज़रूरी था, अर्थजगत में अभी भी बहुत कुछ ऐसा बच गया था जिसे निजी पूंजी के हवाले किया जाना था. यह सब जो कारगर ढंग से कर सके और साथ ही साथ जनता को रंगीन सपने बेचते हुए जन-आन्दोलनों का निर्भीक तरीके से दमन कर सके, लोकतांत्रिक आवरण में ऐसे अधिनायकवाद की कारपोरेट मांग 'मोदी परिघटना' के रूप में सफल हुई.

पूंजी की सता आज निरंकुश आत्मविश्वास से भर कर बोल रही है, "सब हमें चुपचाप सौंप दो! किसानों! जमीन लेने से पहले, हम तुमसे पूछेंगे नहीं. जंगलों और पहाड़ों पर रहनेवालों! तुम्हारे पहाड़ों और जंगलों का मूल्य हम जानते हैं, इन्हें हमारे लिए खाली करो, हम तुमसे पूछेंगे नहीं. मजदूरों, श्रम कानूनों के चलते जो कुछ सुरक्षाएं तुम्हें मिली हुईं थी, अब वे बीते दिनों की बातें होंगी. तुम्हारी संगठित सौदेबाजी, तुम्हारी हड़तालों के दिन लद चुके हैं. देखो, हम खेत, खलियानों, जंगल, पहाड़ों से कितनी बड़ी तादाद में उखड़े हुए लोगों की फ़ौज खड़ी कर रहे है, हमारे लिए काम करने के लिए. मुनाफे की राह में सारी बाधाएं दूर करने का हमें 'जनादेश' मिला है. तुम जिसे मुनाफ़ा कह रहे हो, वही 'विकास' है. अधिकारों और संघर्षों के लिवे सड़क पर उतरनेवालों, सावधान! संविधान में प्रदत्त अधिकार दमन से तुम्हारी रक्षां नहीं कर सकेंगे." सच है कि तीसरी दुनिया के देशों में नव-उदारवाद का काम पूंजीवादी लोकतंत्र के अपेक्षया उदार रूप से नहीं , बल्कि अंततः तानाशाही रूप से ही चला करता है.

विकास एक खूबसूरत गुब्बारा है, जो मीडिया के आसमान में बुलंदियों को छू रहा है. मीडिया का बड़ा हिस्सा किसी भी समय से ज़्यादा अब पूंजी के घरानों के हाथ में है. कारपोरेट मीडिया लूट की डोर से बंधी झूठ की पतंग की मानिंद हमारी चेतना के आकाश में लहरा रहा है. लूट और झूठ के साथ टूट और फूट वर्तमान कारपोरेट सत्ता-संस्कृति के प्रमुख अस्त्र हैं. जो लोग सिर्फ 'सूट-बूट' से उसकी शिनाख्त कर रहे हैं, वे 'लूट-झूठ-टूट-फूट' में खुद की संलिप्तता पर पर्दा डाल रहे हैं. राष्ट्रीय, जातिगत, लैंगिक, धार्मिक, नस्लीय और क्षेत्रीय पहचानों और आकांक्षाओं को शान्ति, बराबरी, सौहार्द्र की जगह आपसी वैमनस्य, हिंसा और प्रतिशोध की दिशा में नियोजन अब सूचना और संचार के आधुनिकतम साधनों के ज़रिए भारी प्रबंध-कुशकता के साथ किया जा रहा है. व्हाट्स एप्प या इंटरनेट पर फर्जी तस्वीरें या वीडियो अपलोड करके दंगे कराए गए हैं, हत्याएं की गयी हैं. प्रशिक्षित स्थानीय साम्प्रदायिक टोलियाँ टूट-फूट या तोड़-फोड़ की कार्यवाहियों में दुगुने आत्मविश्वास से जुटी हुई हैं- 'सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का'. सांप्रदायिक उन्माद की गुंजायश तलाशते सत्ताधारी सांसद, मंत्री, प्रवक्ता अपने बयानों से इन टोलियों को उत्साहित करते हैं. कभी अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यक धर्म में 'घरवापसी' की सीख दी जाती है, कभी उन्हें मताधिकार से वंचित करने की धमकी, तो कभी उनके धर्मस्थलों को हमले का निशाना बनाया जाता है. कारपोरेट लाभ-लोभ के विरुद्ध काम करनेवालों या फिर सत्ता-प्रेरित साम्प्रदायिक गतिविधियों के विरुद्ध लड़नेवाले सामाजिक संगठनों और कार्यकर्ताओं को फर्जी मामलों में फंसाने में राजसता का सीधा उपयोग अब आम बात है.

आज आलोचना की संस्कृति का ध्वंस या उसे निष्प्रभावी बनाने के नित नए हथकंडों का आविष्कार और उन्हें आजमाया जाना बताता है कि 'जलती हुई सच्चाइयों' के साक्षात्कार को टाल देने के कितने भी निपुण प्रयास पूंजीवादी समाज करता हो, वह मानवीय विवेक-बुद्धि की प्रतिरोधी आलोचनात्मक चेतना को अंततः हर नहीं सकता, अतः दमन का सहारा लेना ज़रूरी हो उठता है. यह संभव नहीं कि जिस समाज का तेज़ी से 'स्वत्वहरण' किया जा रहा हो, 'लूट-झूठ-टूट-फूट' की सत्ता-संस्कृति जिसे भौतिक और चेतनागत धरातल पर विघटित कर रही हो, उसका कोई भी हिस्सा इसके बारे में विवेकपूर्ण ढंग से न सोचे और इस प्रक्रिया की आलोचना न करे. 'जलते सच' को देखने और दिखाने के लिए बुद्धि-विवेक की आँखें चाहिए. समाज की इन आँखों को अंधा करने के लिए, उनकी विवेक-बुद्धि को हर लेने के लिए, उनकी वर्तमान दुरावस्था की क्षतिपूर्ति के बतौर अतीत की रमणीय मिथकीय कल्पनाओं की आपूर्ति करने से लेकर एक भ्रष्ट और उन्मादी इतिहास-बोध में समाज को दीक्षित करने का काम शिक्षा, संस्कृति और नागरिक समाज की विभिन्न संस्थानों के ज़रिए सरकार तेज़ी से करने में जुटी हुई है. इस सत्ता-संस्कृति के दोनों बाजुओं यानी कारपोरेट लोभ और साम्प्रदायिक उन्माद, किसी भी पक्ष के प्रति आलोचनात्मक चेतना का निर्माण करनेवाले संस्कृतिकर्मियों को अपमानित, प्रताड़ित और असहाय बनाना इस सत्ता-संस्कृति की ज़रुरत है. किताबों को जलाना, नाटकों का मंचन रोक देना, फिल्मों का प्रदर्शन, सभाओं और सेमिनारों को बाधित करने की तो एक परम्परा ही बन गयी है, जो अब प्रत्यक्ष सता-संरक्षण में उफान पर है.

आज एक नया विमर्श रचने की ज़रुरत है. स्वतंत्रता, समानता, नागरिक अधिकार, सामाजिक न्याय, अभिव्यक्ति और सृजन की आज़ादी, आर्थिक स्वावलंबन और धर्मनिरपेक्षता के विमर्श, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के सभी रूपों के अंत के सपने कभी पुराने नहीं पड़ेंगे, लेकिन उन्हें भी मानव-मुक्ति के वर्तमान युग-धर्म के रूप में नया विन्यास चाहिए. हम संस्कृतिकर्मी अपने समस्त कला-कर्म, सृजन और संघर्ष के सभी रूपों की मार्फ़त इस नूतन विन्यास को रच सकें, इसी मंथन और तैयारी के लिए हम 14वें राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रेमचंद जयंती (31जुलाई) और 01अगस्त को दिल्ली में मिल रहे हैं. आपका साथ हमारी ताकत और संबल होगा.

( जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद् द्वारा जारी) 

वेदना नदी का जल- प्रियम अंकित

( मुक्तिबोध की चर्चित कविता 'अंधेरे में' के 50 वर्ष होने पर देश भर में विचार गोष्ठियों का आयोजन हुआ। इन आयोजनों ने मुक्तिबोध को नए सिरे से पढ़ने की अनिवार्यता को रेखांकित किया। इलाहाबाद में हुए एक आयोजन में जसम के राष्ट्रीय पार्षद और लब्ध प्रतिष्ठा युवा आलोचक श्री प्रियम अंकित ने यह आलेख पढ़ा था।)  


   अंधेरे में  एक ऐसी कविता है, जो अपने लिखे जाने के समय से ही, अपने वर्तमान से जूझते हुए भविष्य की चिंता करने वाली कविता है। इसलिये यह एक भविष्योन्मुखी कविता है। अर्थात समय और यथार्थ के लगातार बदलने के बावजूद अपने अस्तित्व की प्रासंगिकता को, उसकी अनिवार्यता को लगातार सिद्ध करने वाली कविता। क्यों यह कविता पचास बरस बीतने के बाद भी हमारे लिये अनिवार्य बनी हुई है? कई आलोचकों ने इस कविता को समझने और समझाने के गझिन और जटिल प्रयास किये हैं।  कई बार उनकी यह आलोचना पाठक के लिये बोझिल हो गयी है। फिर भी यह कविता अपने कठिन शिल्प के बावजूद पाठकों के बीच उत्तरोत्तर लोकप्रिय होती जा रही है। इस कविता की फैंटेसी में एक प्रसंग है, जहाँ काव्यनायक को पकड़ कर एक अंधेरे कमरे ले जाया जाता है और पार्श्व से आवाज़ आती है – स्क्रीनिंग करो – मि. गुप्ता / क्रॉस एक्ज़ामिन हिम थॉरोली अंधेरे में  की कई आलोचनाएं पढ़ने पर ऐसा लगता है कि इस कविता को भी ‘क्रॉस एग्ज़ामिन’ किया जा रहा है, कभी मनोविश्लेषणवादी चश्मे से, कभी अस्तित्ववादी, कभी शुद्ध मार्क्सवाद के चश्मे से, कभी शुद्ध कविता के चश्मे से, तो कभी इन सबके घाल-मेल से। लगता है जैसे आलोचकों पर दबाव है। दबाव इस कविता को अपने मन माफिक व्याख्यायित करने का। दबाव का स्वर मानो यह हो कि “ मि. क्रिटिक – स्क्रीनिंग करो / क्रॉस एक्ज़ामिन द पोएम थॉरोली।” शायद कोई पश्यत् कैमरा मिल जाए जिसमे यह रिकार्ड हो कि कविता में अस्तित्ववाद कितना है, मनोविश्लेषणवाद और मार्क्सवाद कितना है। लेकिन यह कविता ‘क्रॉस-एक्ज़ामिनेशन’ के तमाम आलोचकीय प्रयासों को पराजित करती है। क्यों? इसलिये कि यह कविता हमारे समय और समाज की सबसे तीखी, सारगर्भित और दुर्लभ आलोचना है। दुर्लभ इसलिये कि हमारे समय और समाज की ऐसी सारगर्भित आलोचना और इस आलोचना से उभरने वाली भविष्यमूलक दृष्टि हिंदी कविता के इतिहास में दुबारा घटित नहीं हुई। कविता ‘खोये हुए’ की ‘खोज’ करने वाली कविता है। खोज की प्रक्रिया में रहस्य-रोमांच पैदा करने वाली घटनाओं से हमारा सामना होता है। ये घटनाएं व्यक्ति और समाज के संदर्भ में एक वृहत्तर अनुभव को समग्रता में निर्मित करती हैं। ज़रूरत इस समग्र और वृहत्तर अनुभव को आत्मसात करने की है।
    हमारी परंपरा में अंधेरे को अज्ञान का , अत्याचार का और अनाचार का प्रतीक माना गया है; जबकि उजाले को ज्ञान का, न्याय का और समरसता का। परंपरा में अंधेरे से उबरने के लिये किसी मसीहा या आप्त-पुरूष का आह्वाहन किया जाता रहा है। ऐसे मसीहा या आप्त-पुरूष का, जो अपने साथ ज्ञान का प्रकाश लाता है और अज्ञान एवं अत्याचार के अंधेरे को दूर भगाता है। अंधेरे में की फैंटेसी से रू-ब-रू होते हुए यह प्रश्न अक्सर सामने आता है क्या इस कविता में भी अंधेरे और उजाले का वैसा ही द्वंद्व है, जैसा परंपरा से हमें मिला है? क्या यह कविता भी किसी मसीहा या आप्त-पुरूष का आह्वाहन करती है। निस्संदेह इस कविता में एक पुरूष है – ‘रक्तालोक-स्नात पुरूष’। और ‘परम अभिव्यक्ति अनिवार आत्म-संभवा’ है। ये दोनो अंधेरे के खिलाफ संघर्षरत जनता के साथ हैं, उसके भीतर हैं, उसका अभिन्न अंग हैं। इस जनता से स्वतंत्र उनका कोई अस्तित्व नहीं है। वे जनता की अपनी निधि है। मुक्तिबोध इस कविता में परंपरा का सचेत अतिक्रमण करते हैं। उनके यहाँ भी अंधेरे और उजाले का द्वंद्व है, लेकिन अंधेरे और उजाले का जो ‘ट्रीटमेंट’ है, वह परंपरा से हटकर है। अंधेरे में कविता में जो उजाला है, वह दो तरह का है। एक उजाला वह जो सत्ता द्वारा निर्मित है – उसी सत्ता द्वारा जिसने अंधेरे का निर्माण किया है। इस उजाले में सत्ता अपने समस्त ढोंग के साथ नमूदार होती है, अपने ‘राक्षसी स्वार्थों’ को अपने शालीन आवरणों में ढाँककर षड्यंत्र रचती है –
   गहन मृतात्माएं इसी नगर की
  हर रात जुलूस में चलतीं
  परंतु दिन में
  बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
 विभिन्न दफ्तरों-कार्यालयों, केंद्रों में और घरों में
    इन पंक्तियों में जो ‘दिन’ है, वह सत्ता द्वारा गढ़े गये उन्हीं उजालों से निर्मित है, जहाँ क्रूर, स्वार्थी और अमानुषिक राजनीति की देह चमचमाते एवं लुभावने आवरण से ढँकी जाती है। इस दिन के उजाले में हर उस व्यक्ति को पागल समझा जाता है जो सत्ता के हितों के साथ अपना तालमेल नहीं बिठा पाता, उसका मौन अनुसरण नहीं करता। ऐसा ही पागल इस कविता में भी है – पागल था दिन में / सिरफिरा विक्षिप्त मस्तिष्क। यह उजाला भय और आतंक की स्रष्टि करता है, भय पागल समझे जाने का। इसीलिये हम अपनी संवेदनाओं को, अपनी पीड़ाओं और मानवीय मूल्यों को अपनी आत्मा के अंधेरे कोनों में, ‘अंतराल-विवर के तम’ में और ‘तिलिस्मी खोहों’ में ‘गुहावास’ दे देते हैं। इस तरह यह उजाला अंधेरे से आवृत है, अंधेरे का सहचर है। एक मामूली सा उदाहरण है, उजाले में सारे बनाव-श्रंगार में प्रकट होने की लालसा साधारण बात है, परंतु अंधेरे में समस्त बनाव-श्रंगार से मुक्त होकर ‘कंफरटेबल मुद्रा’ में आना भी आम है। सत्ता की ‘कंफरटेबल मुद्रा’ कौन सी है? जनता के ऊपर दबंगई की मुद्रा! सत्ता जब दिन के उजाले में टी. वी. चैनलों के माध्यम से या अखबारों के संपादकीय पृष्ठों के माध्यम से सामने आती है तो तमाम लोक-लुभावने आवरण को ओढ़ कर। लेकिन जब अत्याचार और शोषण का अंधेरा गहराता है, तो इस अंधेरे में यही सत्ता इन सारे ढोंगों से निरावृत होकर अपने नग्न रूप में उपस्थित होती है। ज़रूरत उस दृष्टि की होती है, उस आँख की होती है, जो इस अंधेरे में, और इस अंधेरे द्वारा आवृत दिन में सत्ता को उसके नंगे रूप में देख सके। यह आँख मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में की फैंटेसी में मौजूद है। आज यह अंधेरा लगातार गहरा रहा है, घना होता जा रहा है। आज हमें इस आँख की ज़रूरत सबसे ज़्यादा है। इसीलिये हम आज मुक्तिबोध की इस कविता की तरफ बार-बार लौटते हैं और अपने दौर के लिये उसे सर्वाधिक प्रासंगिक और अनिवार्य पाते हैं।
     कविता में दूसरे किस्म का उजाला भी है – ‘सत्-चित्-वेदना-भास्वर’ द्वारा निर्मित उजाला। यह ‘सत्-चित्-वेदना-भास्वर’ हमें आत्म-संघर्ष से प्राप्त होता है। यह आत्म-संघर्ष एक स्तर पर निजी संघर्ष हो सकता है, लेकिन यह अपनी सार्थकता को तभी प्राप्त होता है, जब वह जन-संघर्ष के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में घुल-मिलकर उससे एकमेक हो जाता है। अंधेरे में  की फैंटेसी में मुक्तिबोध का काव्यनायक बेहद यंत्रणा-भरी राहों से गुज़र कर बेतरह भटकता है। इस कदर कि उसके भटकाव को समेटने में पूरी कविता बिखर गई है। इस बिखराव और भटकाव में बहुत ‘कनफ्यूज़न’ हो सकता है। लेकिन यहाँ एक बात है, जिसमें कोई ‘कनफ्यूज़न’ नहीं है। वह यह कि जो कुछ भी हमारी ‘निजी’ चेतना के खाते में आता है, वह समाज से पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। ‘निजता’ और ‘सामाजिकता’ एक-दूसरे से द्वंद्वात्मक रूप में पूरी जीवंतता के साथ आबद्ध हैं। अंधेरे में कविता में ‘निजी’ और ‘सामाजिक’ के इस जीवंत और द्वंद्वात्मक संबंध को जो उजाला उद्घाटित करता है, वह ‘सत्-चित्-वेदना-भास्वर’ द्वारा निर्मित है। ‘सत्-चित्-वेदना-भास्वर’ यानि सत्ता के ‘राक्षसी स्वार्थों’ के विरूद्ध संघर्षरत जनता की सच्ची और पवित्र वेदना के ताप से पैदा हुआ प्रकाश। आज पचास साल बाद लगातार गहराते अंधेरे में इसी प्रकाश के तेजस्वी आलोक को एक मूल्य की तरह बरतने की तमीज़ हमें यह कविता देती है, जिससे बेहतर समाज-व्यवस्था का निर्माण किया जा सके। मुक्तिबोध के काव्यनायक के शब्दों में कहें तो –
                       सवाल है – मैं क्या करता था अब तक,
                       भागता फिरता था सब ओर।
                       (फिज़ूल है इस वक्त कोसना खुद को)
                       एकदम ज़रूरी दोस्तों को खोजूँ
                        पाऊँ मैं नये-नये सहचर
                        सकर्मक-सत्-चित-वेदना-भास्वर !!
    अधेरे में की फैंटेसी में तीन पंक्तियाँ है, जो टेक की तरह बार-बार आती हैं। भागता मैं दम छोड़ / घूम गया कई मोड़ ; दूसरी है – अब तक क्या किया / जीवन क्या जिया और तीसरी है – कहीं आग लग गयी कहीं गोली चल गयी । कविता का लक्ष्य है अभिव्यक्ति की खोज और कविता में टेक की तरह आने वाली ये तीन पंक्तियाँ इस खोज के तीन पड़ाव हैं। इन पड़ावों से गुज़र कर ही हम खोजी जा रही अभिव्यक्ति के चरित्र की पहचान कर पाते हैं।
      काव्यनायक अंधेरे में सता को उसके नग्न रूप में देखता है – मृत्यु-दल की शोभायात्रा के रूप में। कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल आदि के साथ-साथ इसमें ऐसे चेहरे शामिल हैं, जिन्हें देखकर वह कहता है –
                  भई वाह !
                  उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण
                  मंत्री भी, उद्योगपति और विद्वान
                  यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
                  डोमाजी उस्ताद
                   बनता है बलबन
                   हाय, हाय !!
                   यहाँ यह दीखते हैं भूत-पिशाच-काय ।
                   भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
                   साफ उभर आया है,
                  छिपे हुए उद्देश्य
                   यहाँ निखर आये हैं,
                    यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की।

         इस शोभायात्रा के सदस्य काव्यनायक को देख लेते हैं और शोर मचता है – “मारो गोली, दागि स्साले को एकदम / दुनिया की नज़रों से हटकर / छिपे तरीके से / हम जा रहे थे कि / आधीरात – अँधेरे में उसने / देख लिया हमको / व जान गया वह सब / मार डालो, उसको खत्म करो एकदम” । काव्यनायक को लगता है – हाय, हाय ! मैंने उन्हें देख लिया नंगा, / इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी ।
    अब सत्ता उसके साथ जो बर्ताव करेगी उसकी भयानकता असीमित है, जिसे अनगिनत काली-काली हायफन-डैशों की लीकें वाले बिंब द्वारा मूर्त किया गया है। काव्यनायक को भान होता है कि सेना ने घेर ली हैं सड़कें और मार्शल लॉ लग चुका है। फिर शुरू होती है टेक – भागता मैं दम छोड़ / घूम गया कई मोड़ । इस टेक के अलग-अलग अंतरालों में जो घटनाएं घटती हैं, वे काव्यनायक के मध्यवर्गीय संस्कारों को करारा आघात पँहुचाती हैं। हर घटना उसके मानसिक द्वंद्व को गहराती है। जैसे-जैसे इस टेक के साथ कविता आगे बढ़ती है, काव्यनायक की अंतर्दृष्टि में निखार आता जाता है। उसे एहसास होता है कि –
                       विवेक चलाता तीखा-सा रंदा
                       चल रहा वसूला
                       छीले जा रहा मेरा निजत्व ही कोई
   काव्यनायक को उसके मध्यवर्गीय संस्कारों से उबरने और उसकी निजता को इन संस्कारों की ‘तिलिस्मी खोह’ से मुक्त करने की राह दिखने लगती है। यहीं काव्यनायक को यह अभिज्ञान होता है कि उसके मध्यवर्गीय संस्कारों ने उसे उस जनता से दूर कर रखा था, जो ‘उसके ही विक्षोभ-मणियों को लिये’ और ‘उसके ही विवेक-रत्नों को’ लेकर अंधेरे में आगे बढ़ी जा रही है।  इसी टेक के अंतरालों में काव्यनायक को मिलता है वह भयंकर बरगद – सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों, / गरीबों का वही घर, वही छत, / उसके ही तल-खोह-अंधेरे में सो रहे / गृह-हीन कई प्राण । यहीं उसे मिलता है वह सिरफिराजन – ‘जो पागल था दिन में’। आज पचास बरस बाद यह पागल पहले से ज़्यादा प्रासंगिक हो चुका है। इस पागल के ‘करूण रसाल स्वर’ आज कई गुना ज़्यादा आवेग के साथ हमारे जड़ मध्यवर्गीय संस्कारों पर करारी चोट कर रहे हैं –
                     “ओ मेरे आदर्शवादी मन,
                     ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
                     अब तक क्या किया?
                     जीवन क्या जिया !!
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                    लोक-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
                  जन-मन-करूणा-सी माँ को हंकाल दिया,
                  स्वार्थों के टेरियर कुत्तों को पाल लिया,
                  भावना के कर्तव्य – त्याग दिये,
                  हृदय के मंतव्य – मार डाले !
                  बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
                  तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
                  जम गये, जाम हुए फँस गये,
                  अपने ही कीचड़ में धँस गये !!
                  विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
                  आदर्श खा गये !
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                   ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
                   मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम.....”     
                   
     
  काव्यनायक कहता है कि यह करूण रसाल स्वर गद्यानुवाद हैं। सवाल है कि गद्यानुवाद क्यों? कविता की भाषा में क्यों नहीं? क्या मुक्तिबोध कविता के शिल्प को लेकर सशंकित हैं? या फिर मुक्तिबोध सिर्फ एक साहित्यिक रूढ़ि का निर्वाह कर रहे हैं, जिसमें शेक्सपीयर से लेकर मंटो तक के पागल चरित्र किसी सार्थक बात को गद्य में ही कहते हैं? वैसे इस कविता की कुछ पंक्तियाँ यह बताती हैं कि मुक्तिबोध को लगता था कि बहुत सी बातें ऐसी हैं, जो कविता में नहीं कही जा सकतीं। उदाहरण के लिये – कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ / वर्तमान समाज चल नहीं सकता। / पूँजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता, / स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी / छल नहीं सकता मुक्ति के मन को / जन को। अँधेरे में को पढ़ने के बाद यह एहसास तीव्रतर होता जाता है कि मुक्तिबोध ने यह कविता लिखी ही इसलिए है कि वे उन बातों को कह दें, जो कविता में नहीं कही जातीं। अर्थात मुक्तिबोध सचेत रूप में इस कविता को कविता की तरह रचना ही नही चाहते। इस कविता में कविता के शिल्प का वह चुस्त-दुरूस्त सांगठनिक सौंदर्य कहीं नहीं दिखता। ऐसा लगता है कि मुक्तिबोध इस कविता में कविता के शिल्प से ही विद्रोह कर रहे हैं – एक सचेत और सकर्मक किस्म का विद्रोह। इस बात की पुष्टि इन पंक्तियों से भी होती है – किंतु, असंतोष मुझको है गहरा / शब्दाभिव्यक्ति अभाव का संकेत। / काव्यचमत्कार उतना ही रंगीन / परंतु ठण्डा। रंगीन काव्यचमत्कारों में मुक्तिबोध की कोई आस्था नहीं है। अर्थात मुक्तिबोध को कविता में चमकीले अलंकार नहीं चाहिये, जो लुभावने तो बहुत हों, किंतु जनसंघर्ष की ऊष्मा का ताप जिनमें न हो। चाहत जनसंघर्ष की ऊष्मा से पगे शब्दों की है, जो ‘आत्मा के चक्के पर’, ‘संकल्पशक्ति के लोहे का मजबूत ज्वलंत टायर’ चढ़ा सकें। कविता अभिव्यक्ति का माध्यम है। यह नहीं भूलना चाहिये कि अंधेरे में अभिव्यक्ति की खोज की कविता है। अँधेरे में शिल्प की दृष्टि से एक मुकम्मल कविता न सही, लेकिन एक मुक्कमल कविता होने की खोज की कविता है। यह खोज खतरनाक है क्योंकि यह मठों और गढ़ों के वर्चस्व को चुनौती देने वाली खोज है। खतरनाक खोज में प्रवृत्त व्यक्ति के पैरों में छाले पड़ते हैं और त्वचा छिलती है। उसी तरह इस कविता के वाक्यों में भी छाले हैं, इसके शब्द छिल चुके हैं, कविता का प्रवाह जगह-जगह अवरूद्ध और टूटा-फूटा है।
    वास्तव में कविता में आया यह अवरोध, यह टूट-फूट, और यह बिखराव काव्यनायक के मानसिक अवरोध, टूट-फूट और बिखराव से अभिन्न है। यह एक स्तर पर कला और कलाकार की एकता का और दूसरे स्तर पर व्यक्ति और समाज की एकता का सूचक है। एकता का यह अनुभव जब व्यक्ति और कलाकार को होता है तो वह बेचैन हो उठते हैं। वे क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की खतरनाक राहों पर कदम बढ़ाते हैं, इस संकल्प के साथ कि अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे। / तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब। / पँहुचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
   मुक्तिबोध के लिये कविता सामाजिक परिवर्तन का सहयोगी कर्म है। इसीलिये उनकी रचनाधर्मिता कविता की चिकनी और शफ्फाक़ सतह को तोड़ कर खुरदुरा बनाती है और शब्दों को छीलती है।
   तो यह कविता, कविता के शुद्धतावादी शिल्प से विद्रोह की कविता है। कला कला के लिये वाला जो शुद्ध सौंदर्यवाद है, अँधेरे में कविता उस पर मरणांतक प्रहार करती है। जैसे-जैसे कविता आगे बढ़ती है, यह स्पष्ट होता जाता है कि काव्यनायक, कलाकार भी है। इस कविता की तीसरी टेक है – कहीं आग कग गयी कहीं गोली चल गयी । इस टेक के जो अंतराल हैं, उनमें काव्यनायक के निजी मध्यवर्गीय संस्कारों का जनक्रांतिधर्मी सामाजिकता में रूपांतरण हो जाता है और कलाकार के निजी शुद्धतावादी आग्रहों का कला की उस चेतना में लोप हो जाता है, जो अपने सामाजिक दायित्व के प्रति अत्यंत सजग है। कविता की यह तीसरी टेक मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति, क्राँति के मार्क्सवादी दर्शन के प्रति मुक्तिबोध के समर्पण की गवाह है। मार्क्सवादी विचारधारा के संदर्भ में इस कविता पर रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के बीच काफी बहस हुई है। कविता का जो आख़िरी या आँठवां खण्ड है, वह विचारधारा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सामाजिक क्राँति की राह में एकजुट होती जनशक्ति को यहाँ साफ-साफ पहचाना गया है – साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं, / साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं, पीते हैं, / जन-मन उद्देश्य !!  क्राँति की राह से अपने को तटस्थ मानकर, अपने कला-कर्म से स्वयँ को गौरवान्वित मानने वाले कलाकारों की नपुंसकता को यहाँ पहचाना गया है – सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक् / चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं / उनके खयाल से यह सब गप है / मात्र किंवदंती। / रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग / नपुंसक-भोग-शिरा-जालों में उलझे । ये वही कलाकार हैं, जो वर्ग-विभाजित समाज में अपनी भूमिका को पहचानने से इंकार करके सत्ताशाली वर्ग का समर्थन करते हैं। प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक ग्राम्शी ने कहा था कि सत्ता भौतिक बल यानि लाठी-डण्डा-मॉर्शल लॉ इत्यादि रूपों के प्रयोग से ज़्यादा हमारी सहमति द्वारा हमारा शोषण करती है, हम पर अपना वर्चस्व स्थापित करती है। इस सहमति, इस वर्चस्व के निर्माण में बौद्धिक-वर्ग उसका समर्थन करता है। इस समर्थन के बदले सत्ता इन बौद्धिकों को पुरस्कार और ओहदे बाँटती है। जब समाज में वर्ग-संघर्ष गहराता है, तब यह बौद्धिक-वर्ग सत्ता के पक्ष में जनता को बरगलाने के लिये छद्म संवादों-समीक्षाओं-टिप्पणियों को गढ़ता है। आठवे खण्ड में कविता इसे पूरे संवेदनात्मक पैनेपन के साथ उद्घाटित करती है –
           भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये
           समाचार पत्रों के पतियों के मुख स्थूल।
          गढ़े जाते संवाद,
          गढ़ी जाती समीक्षा, गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर।
        बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
        किराये के विचारों का उद्भास।
        बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।
        नपुंसक श्रद्धा
       सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी
      कविता की शुरूआत में जिस आत्मा की तिलिस्मी खोह में ‘रक्तालोक-स्नात पुरूष’ चक्कर लगाया करता है, काव्यनायक को आहटों से बेचैन करता हुआ, वही आत्मा अब यहाँ ‘विश्व की मूर्ति में ढल’ चुकी है। ‘दादा का सोटा’, ‘कक्का की लाठी’, ‘बच्चे की पेंपे’ और ‘सलेट पट्टी’ सब कुछ इस विश्व की मूर्ति के सक्रिय अवयव हैं। और यह सब फैंटेसी नहीं है – यह कथा नहीं है, यह सब सच है, हाँ भाई !!  क्योंकि ‘अब युग बदल गया है,वाकई’ । कहा जाता है कि मुक्तिबोध ने इस कविता की रचना 1957-64 के मध्य की थी। यह आज़ादी के स्वप्न से मोहभंग का काल था। निस्संदेह यह एक युग का अंत था और एक नये युग की शुरूआत थी। मगर कविता में यह जो पंक्ति है – अब युग बदल गया है, वाकई !! – यह मात्र इस बदलाव को स्थूलता में व्यक्त नहीं करती। इस पंक्ति में ‘अर्थ की वेदना’ छिपी हुई है। यह बदला हुआ युग, यह नया युग, जिसकी बात काव्यनायक करता है, वह मध्यवर्गीय बौद्धिक के व्यक्तित्वांतरण की समूची यात्रा की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। मध्यवर्गीय संस्कारों की गिरफ्त में बुरी तरह फँसा बौद्धिक अपने युग की समस्याओं से अनजान था। लेकिन व्यक्तित्वांतरण ने, मध्यवर्गीय संस्कारो से मुक्ति ने उसे युग की सँभावनाओं को पहचानने की तमीज़ दी है। अपने युग के प्रति काव्यनायक की प्रतिक्रिया में अब संपूर्ण बदलाव आ चुका है, इसलिये सिर्फ ‘अब युग बदल गया है’ नहीं, बल्कि ‘अब युग बदल गया है, वाकई’। यह ‘वाकई’ शब्द बहुत मानीख़ेज है, बहुत मूल्यवान है। और इस ‘वाकई’ बदले युग ने शोषण के विरूद्ध संघर्ष-चेतना से उपजी ‘वेदना की स्रोतस्विनी’ को भी मुक्त किया है, जो वर्ग-विभाजित समाज में अदृश्य रहती है, लेकिन जब वर्ग-संघर्ष गहराता है तो वह दृश्यमान हो उठती है –
   
 वेदना नदियाँ
जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से
मानो कि आँसू
पिताओं की चिन्ता का उद्विग्न रंग भी,
विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,
डूबा है जिनमें श्रमिक का सन्ताप।
वह जल पीकर
मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर,
        कविता के इसी खण्ड में प्रेम का, अज्ञात प्रणयिनी का भी ज़िक्र है। कुछ लोग अचकचा जाते हैं कि संघर्ष में, गोली की धाँय-धाँय में यह प्रेम और प्रणयिनी कहाँ से आ गयी ! यह ध्यान रखना होगा कि कविता की एक परंपरा वह भी है, जहाँ कबीर से लेकर मीर, ग़ालिब और फैज़ ने संकीर्ण हितों से उबारने वाली और विश्व-बंधुत्व के धरातल पर फैलने वाली चेतना के संदर्भ में प्रेम और प्रणयिनी के रूपक का इस्तेमाल किया है। इन सभी कवियों के काव्य को भी खूब तोड़ा-मरोड़ा गया और मुक्तिबोध की कविताओं की भी ऊल-जुलूल व्याख्यायें की गयीं। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा – न कबीर, मीर, ग़ालिब, फ़ैज़ पर और न ही मुक्तिबोध पर।
    अंधेरे में की फैंटेसी का अंत व्यक्तित्वांतरित काव्य नायक के इस संकल्प के साथ होता   है –
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा।
   यह ‘परम अभिव्यक्ति’, जिसे ‘अनिवार’ भी कहा गया है, उसका एक आयाम यह है कि वह व्यक्ति में सामाजिक-प्रतिबद्धता को और कला में प्रतिबद्ध कलाकार को प्रकाशित करने वाली चेतना है। यह राजनीतिक रूप से सजग चेतना है। यह ‘आत्मग्रस्त’ व्यक्ति की आत्मा को उसके ‘अंतराल-विवर के तम’ से बाहर लाकर ‘विश्व मूर्ति’ में ढालने वाली चेतना है।
    अंधेरे में कविता के काव्यनायक के मानसिक-द्वंद्व, उसके व्यक्तित्वांतरण, जनसंघर्ष की चेतना और कला के दायित्व के प्रति सजगता के भाव से जो अनुभव उपजता है, उसने हमारी भाषा में एक पद को बेहद लोकप्रिय बना दिया है। वह पद है- ‘मुक्तिबोधीय चेतना’। इस पद को बड़े या ख्यातिप्राप्त आलोचकों के बार-बार प्रयोग द्वारा नहीं, बल्कि पाठकों के लगाव द्वारा स्थापना मिली है। यह मुक्तिबोध के काव्य की व्यापक ‘अपील’ का सबूत है। अंधेरे में को पढ़ने के बाद मुक्तिबोध के व्यक्तित्व से अभिन्न रूप में जुड़े यह शब्द याद आते हैं कि “पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है’ या फिर ‘तय करो किस ओर हो तुम !’

प्रियम अंकित 
पता –
1ए – हँटले हाऊस
लॉ फैकेल्टी, आगरा कॉलेज
एम. जी. रोड
आगरा – 282010
उ. प्र.
मोबाईल – 9359976161